वारहवां अध्याय ७७५ वरे ही कर्म करते है । इसलिये पीछे दिमाग दुरुस्त होनेपर सोच लिया कि चलो इनके फलोको ही भगवान को समर्पित करे। इस तरह भले फल तो शायद ही थे जो गये। मगर बुरे तो प्राय सभी थे और सभी गये-खत्म हो गये । इसी आशयसे "सर्वकर्म फलत्याग" कहा है। सर्व कहने से बुरे-भले सभी आ जाते है। इस प्रकार चक्कर काटके फल और कर्मके द्वारा मनको वहाँ तक पहुँचाते है । यही अन्तिम सीढी है। कहते है कि किसी वेश्याका कोई नौकर था। वह प्रतिदिन सुन्दर सुन्दर फूल उसके लिये चुन लाता था। एक दिन रास्तेमे फूल लिये आ रहा था। अकस्मात उनमे दो एक फूल नीचे गिर पडे । उसने जो उन्हें उठानेकी कोशिशकी तो देखा कि विष्ठा पर ही जा पडे है। अव तो विवश था और कलेजा मसोसके रह गया। फिर कुछ सोचके बोला, 'विष्णवे स्वाहा' । कभी सुना था कि विष्णुको अर्पण करनेसे पुण्य होता है। उसने जब कोई उपाय न देखा तो हारके पुण्य ही लूटना चाहा। कहानी तो बताती है कि उसीके करते उस पतितको भी बैकुठका दर्शन मिला। मगर हमे उससे मतलब नही है। हमे तो यहाँ इतना ही कहना है कि वेश्याके नौकरकी ही तरह पीछे हारके कर्मोके फलोको भगवानके अर्पण किया जा सकता है । यह कोई असभव बात नहीं है । हाँ, है यह सबसे नीचेकी, छोटी और आखिरी वात । अब हमे प्रसगवग उन लोगोसे एक प्रश्न करना है जो साकार भग- वानकी भक्तिको ही दरअसल सबसे बडी चीज गीताके मतसे बतानेपर तुले बैठे है। हमने गीताके ही श्लोकोके आधारपर, जो इमी अध्यायके इमी मौकेके ही है, कमसे कम चार प्रकारकी भक्तियोको दिखाया है। इन्हे तो वह भी मानेगे ही। क्योकि यह तो हमारी अपनी मनगढन्त, चीजे है नहीं। तो अब वही बताये कि इनमे कौनसी भक्ति सबसे ऊंची है जिसका टिडोरा गीताने पीटा है ? ज्ञान और समाधिको अपेक्षा जो ?
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