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बारहवाँ अध्याय- ७७३ लेकिन यदि मुझे ही अर्पण करते हुए यह करनेमे भी असमर्थ हो तो मनपर अकुश रखके सभी कर्मोके फलोकी पर्वा छोड दे ॥११॥ आगे बढनेके पूर्व यहाँ कुछ विचार कर लेना जरूरी है ।६,७ श्लोकोमे जो वाते कही गई है उन्हीका उपसहार आठवेमे है । न कि कोई नई बात । यही है साकार भगवानकी अनन्य भक्ति, जिसका उल्लेख ग्यारहवे अध्यायके अन्तमे आया है और बारहवेके शुरूमे जिसके बारेमे ही प्रश्न हुआ है। मगर यह पूर्ण भक्ति है, उसकी आखिरी निष्ठा या स्थिति है। यह भी तो कही चुके है कि ग्यारहवेके अन्तिम श्लोकमे जो कुछ कहा गया है वह पूर्ण भक्ति ही न होके उसके पहलेकी सीढियाँ भी उसीमे आ गई है, हालांकि उनका इतना स्पष्ट वर्णन होना वहाँ असभव था। अतएव प्रश्नके बाद उनकी स्पष्टता अपने आप यहाँ हो जाती है और बादके तीन (९-११) श्लोक यही काम करते हैं। इनमें हवाँ पहली वात कहता है कि यदि पूर्ण भक्तिकी दशावाला मन न हो पाया हो और इधर-उधर दौडता हो तो अभ्यास ही उसे काबूम करनेका उपाय है । इस अभ्यासकी बात पहले खूब ही आ चुकी है । लेकिन यदि वह बहुत ही गन्दा हो और इतना चचल हो कि अभ्यास भी न हो सके, तो दसवें श्लोकमे बादकी सीढ़ीके रूपमे कहा गया है कि “यत्करोषि" (६।२७) के अनुसार भगवदर्पण बुद्धिसे कर्म ही करते जानो। फिर तो समय पाके अभ्यासकी योग्यता आई जायगी। किंतु यदि दुर्भाग्यसे यह भी न हो सकनेवाला हो और मन अत्यत पतित हो, तो आखिरी बात यह है कि सभी भले-बुरे कर्मोके फलोको ही भगवानके अर्पण करके वेफिक्र बन जाओ। यही वात ग्यारहवे श्लोकमे है । यदि ग्यारहवे अध्यायके अन्तिम श्लोकके "मत्कर्मकृन्मत्परम "का यहाँके दसवेंके “मत्कर्मपरम "से मिलान करे तो पता चल जायगा कि उस ग्लोकमे इन सीढियोका समावेश जरूर है। इस प्रकार मनको निरन्तर साकार भगवानमे जोड देनेकी पूर्ण भक्तिके