बारहवां अध्याय ७६६ संनियम्यन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः । ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितेरताः ॥४॥ क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्त चेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥५॥ विपरीत इनके जो सर्वत्र समदर्शी लोग सभी इन्द्रियोको काबूमे करके अक्षर, न बताये जा सकनेवाले, अदृश्य, सर्वव्यापी, चिन्तनके अयोग्य, निर्विकार एकरस, क्रियाशून्य और स्थिर (ब्रह्म) की पूर्ण उपासना या समाधि करते है, समस्त ससारके हितमे लगे हुए वे लोग (भी) मुझ भगवानको ही प्राप्त करते है (सही)। (मगर) निराकारमे जिनके चित्त चिपक चुके है ऐसे लोगोको (पहले) दिक्कते बहुत ज्यादा (होती है)। क्योकि शरीरधारियोके लिये अव्यक्तमे जा लगना असभवसा ही होता है।३।४।५॥ यहाँ एकाध बातें विचारणीय है। इन श्लोकोमे उन्ही समदशियोका वर्णन है जिनका "विद्याविनयसम्पन्ने” (५।१८-२१)मे पाया जाता है । इसीलिये उनके बारेमें, 'उपासते'के पहले 'परि' लगाके पूर्ण उपासना या समाधिके ही रूपमे उनकी स्थितिका वर्णन किया है । पाँचवे श्लोकके "अव्यक्तासक्तचेतसाम्"मे जो 'आसक्त' पद पाया है उससे भी यही सिद्ध हो जाता है कि वे समाधिकी पूर्णावस्थावाले ही है। ऐसी दशामे जो अन्तमे कहा है कि अव्यक्तमे लगनका होना शरीरधारियोके लिये असभवसा ही है उसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि ऐसे लोगोको कोई कष्ट होता है। वे तो पहुँचे हुए हई। उन्हे क्या दिक्कत होगी ? वे तो दिक्कतें पार कर गए है । शायद 'दुख' पदको देखके लोग ऐसा आशय निकालना चाहते है। वे इसमे इससे पहलेके "क्लेशोऽधिकतर "से भी सहायता लेते है । मगर यह क्लेश तो उस दशामे पहुँचनेसे पहलेका ही है। वहाँ पहुँचके कैसा ४६
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