बारहवाँ अध्याय ७६७ ? है। ग्यारहवेके अन्तमे साकारकी ही बात सभव थी। उसीका तो वहाँ प्रसग ही था। इसलिये स्वभावत अर्जुनका झुकाव उसी ओर होना था। ताहम निश्चय न कर सकनेके कारण ही उसने पूछ दिया। इतना तो मानना ही होगा। किन्तु जरा यह भी तो सोचे कि आखिर वह पूछता ही क्या है। यही न, कि दोनोमे योगवित्तम कौन है ? और योगका अर्थ "समत्व योग उच्यते" तो हो नहीं सकता। क्योकि उसमें छोटे- बडेका क्या प्रश्न, उत्तम मध्यमकी क्या वात वह तो एक ही तरहका होता ही है । और दोनो ही योगी हो यह तो गैरमुमकिन भी है । योगके मूलमे तो आत्मदर्शन है न ? वह साकारोपासकको होगा ही कैसे ? तब तो यह उपासना ही बेकार होगी। इसलिये यहाँ योगका अर्थ उपाय, रास्ता या मार्ग ही मानना होगा। हम तो कही चुके है कि योगका उपाय अर्थ भी होता ही है । अर्जुनके पूछनेका तो केवल इतना ही आशय है कि कल्याणका मार्ग जानते है तो दोनो ही। मगर उन जाननेवालोमे कुशल कौन है? असलमे मार्ग तो सबके लिये एक होता नही। वह तो योग्यता या अधिकारके हिसाबसे ही जुदा-जुदा होता है। मार्ग जाननेवालेकी कुशलताका भी यही मतलब होता है कि जिसे जिसके योग्य समझे उसे वही बताये, न कि सब धान पूरे बाईस पसेरी ही तौलने लगे। तब तो अनर्थ ही होगा। किसीके लिये उसकी योग्यताके अनुसार जो मार्ग सर्वोत्तम हो सकता है वही दूसरेके लिये बेकार या हानिकारक भी हो सकता है। इसीलिये चतुर उपदेशक और जानकारकी जरूरत होती है। अर्जुनके पूछनेका यही आशय है। कृष्णने उत्तर भी इसी दृष्टिसे दिया है। जनसाधारणके लिये तो साकारोपासना ही श्रेष्ठ है । कारण, निराकारकी बात उनकी पहुँचके बाहरकी ठहरी । जगलमे फल पके भी तो गाँववालोके किस कामके ?
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