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ग्यारहवां अध्याय ७६१ श्रीभगवानुवाच सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम । देवा अप्यस्य रूपस्य नित्य दर्शनकाक्षिणः ॥५२॥ (तब) श्रीभगवान कहने लगे (कि आज) तुमने जो मेरा रूप देखा है इसका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। देवता लोग भी बराबर ही इस रूपके दर्शनकी आकाक्षा रखते है ।५२। नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥५३॥ तुमने अभी-अभी मुझे जिस तरह देख लिया है इस रूपमे मै वेद, तप, दान और यज्ञ (किसी भी उपाय) से देखा नहीं जा सकता ।५३। भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥५४॥ हे अर्जुन, हे परन्तप, (किन्तु) अनन्य भक्तिसे ही मुझे इस प्रकार जाना, आँखो देखा और उसी रूपमे-वैसा ही स्वय भी होके-उसमे प्रवेश किया (भी) जा सकता है ।५४। मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगजितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पांडव ॥५५॥ (इसीलिये) हे पाडव, जो मेरे ही लिये---मदर्थ-कर्म करे, मुझीको अन्तिम (लक्ष्य वस्तु) माने, मेरा ही भक्त हो, आसक्तिशून्य हो और किसी भी पदार्थसे वैर न रखे, वही मुझे प्राप्त करता है ।५५। यहाँ सक्षेपमे ही दो-तीन बाते जान लेनी है। पहली बात यह है कि यद्यपि ४८वे तथा ५३वें श्लोकमे वेद आदिकी बाते एक ही है, जिससे व्यर्थकी पुनरुक्ति प्रतीत होती है, फिर भी पहले श्लोकमे अर्जुनको आश्वासन देनेके ही लिये वह बाते कही गई है कि कहाँ