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६० गीता-हृदय , सो तो आज खत्म हुए, कल खत्म हुए जैसे ही है । उनका नाश तो कोई भी शक्तिपरमेश्वर भी रोक सकती नहीं। वह तो अनिवार्य है अवश्यम्भावी है। यदि युद्ध में नहीं, तो ज्वर, महामारी प्रादिसे ही वे शरीर एक न एक दिन खत्म होगे ही। फर्क यही है कि तब मरना केवल मरना होगा। लेकिन अब मरनेमे मजा है, बहादुरी है, नाम और यश है, आत्मसम्मान है, स्वधर्मपालन है, "समर मरण अरु सुरसरि तीरा। रामकाज क्षणभग शरीरा"वाली बात है। फिर चिन्ता कैसी ? आगा- पीछा कैसा ? यही तो फायदेका सौदा है। १९वे और २१वे श्लोकोमें जो करारी डॉट उन लोगोको वताई है जो आत्माके वारेमे चिन्ता करते और हिंसा-अहिसाकी बातें करते है वह बहुत ही सुन्दर है, निराली है, खूब है । साफ ही कह दिया है कि जो इस आत्माको मारनेवाली चीज मानते है और जो इसे मरनेवाली समझते है “वे दोनो ही कुछ नही जानते, बेवकूफ है, नादान है, कोरे है"- "उभौ तौ न विजानीत" (१६) । इसी तरह २१वे मे साफ ही कहते है कि "जिसने इस प्रकार आत्माको अजन्मा अविकार, सनातन और अविनाशी जान लिया भला वह किसीको मार-मरवा सकता है ।" "वेदाविनाशिन नित्य य एनमजमव्ययम् । कथ स पुरुष पार्थ क घात- यति हन्ति कम् १" यहाँ "कथ स पुरुप" और भी सुन्दर है । वह तो मर्द है, नामर्द तो है नहीं। तव भला वह कैसे मारने-मरवानेकी वात सोचे । यह तो नामर्दीका रास्ता है, इससे तो नामर्दी और हिचकको प्रोत्साहन मिलता है और मर्द होके वह ऐसा काम करेगा। यह साराका सारा वर्णन इतना सरस और युक्ति-दलीलोसे भरा है कि लोट-पोट हो जाना पडता है। तर्क भी इतना जबर्दस्त और मामयिक (uptodate) एव वैज्ञानिक है कि कुछ कहिये मत । एक नमूना सुनिये।