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ग्यारहवाँ अध्याय ७५७ पर्वा गीता उतनी नहीं करती। स्मरण रखना चाहिये कि गीताका समय मान्य उपनिपदोके ही आसपास है और उनमे ऐसा पाया ही जाता है । लेकिन कुछ लोग इसीको प्राचीन भाष्यकारोकी भारी भूल मानते और 'प्रियायाहसि' मे पष्ठीकी जगह चतुर्थी मानके 'प्रियायअर्हसि' ऐसी सन्धि करते है। काफी लेक्चर भी उनने दे डाला है। किन्तु वे इतना भी न सोच सके कि पिता-पुत्र और साथी-साथीके दो विशेष दृष्टान्त देनेके बाद प्रियको प्रिय माफी दे यह कहना कैसे उचित होगा। हाँ, यदि 'प्रिय'- की जगह 'प्रिय' ऐसा सम्बोधन होता, तब शायद 'हे प्रिय'के लिये 'प्रिय' कह देनेसे काम चल सकता। लेकिन यहाँ तो सो है नहीं । अर्जुन अपनेको पुत्र न कहके प्रिय कहे यह भी ठीक नहीं। सखा आदिकी वातके लिये तो माफी मांगी चुका है। यहाँ दो या तीन 'इव'की भी वात नही उठ सकती है। ऐसा तो बार- बार मिलेगा कि ऐसे मौकोपर तीनकी जगह एक ही या दोई शब्द आते है। स्त्रियोका दृष्टान्त पालकारिक नहीं है, किन्तु वस्तुस्थिति है। जो माफी पुत्र या साथीको भी नहीं दी जाती वह स्त्रीको दी जाती है। वशर्ते कि वह प्रिया हो और उसमे दिल लगा हो । इसीलिये उसका दृष्टान्त दिया है । ऐसा भी होता है कि पुत्रको भी जो माफी नहीं मिलती वह साथीको मिलती है। इसीलिये क्रमश ऊंचे दर्जेके दप्टान्त पाये है। प्रदृष्टपूर्व हपितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रत्यथित मनो मे। तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४५॥ जो कभी न देखा था उसे देखके मेरे रोगटे खड़े हो गये है और भयसे मेरा मन व्याकुल है । (इसलिये) हे देव, हे देवेग, हे जगन्निवास, कृपा कीजिये (धीर) वही (पुराना) स्प मुझे फिर दिखाइये । ८५॥ किरीटिन गदिन चाहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।। तेनव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥४६॥