७४६ गीता-हृदय क्योन तिरस्कार करते है वह विगडे दिमागवाले बदबख्त लोग ही है। इतना ही नही । “यद्यदाचरति श्रेष्ठ" (३२१-२६) आदि श्लोकोमें उनने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि मैं स्वयमेव सभी कर्म इसीलिये करता हूँ कि मेरी देखादेखी जनसाधारण भी ऐसा ही करें। नहीं तो यदि मैं उलटा करूँ तो वह भी वैसा ही करेंगे। क्योकि उनके पास समझ तो होती नही कि तर्क-दलील करके अपने फायदेकी वातें करें। वे तो आंख मूंदके यही सोचते है कि जब खुद कृष्ण ही ऐसा करते है तो हम करे ? यह जरूर ही अच्छा काम होगा। नतीजा यह होगा कि मेरे चलते सारी दुनिया चौपट हो जायगी। इससे गोपियोंके साथ रासलीलावाली वात विल्कुल ही वेबुनियाद और निराधार सिद्ध हो जाती है। भला, जो महापुरुष औरोंके बारेमें और अपने बारेमे भी इतनी सख्तीसे बातें करे कि लोगोको जरा भी विपथ- गामी होनेका मौका हमे अपने प्राचरणोके द्वारा नहीं देना चाहिये, वही ऐसा जघन्य और कुत्सित कार्य कभी करेगा, यह दिमागमे भी आनेकी बात है क्या ? जो लोग ऐसी वाहियात बातोंके समर्थनमें लचर दलीलें पेश किया करते है उन्हें गीताके इन वचनोको जरा गौरसे पढना और इनके अर्थको समझना चाहिये। तब कही बोलनेकी हिम्मत करनी चाहिये। हमने जो इन श्लोकोके स्पष्टीकरणमे बहुत कुछ लिखा है उससे उनकी भी आँखे खुल जायेंगी, यह आशा कर सकते है । गोपियाँ वेदकी ऋचाये थी, अनन्य भक्त थी आदि आदि जो कल्पनायें की जाती है और इस तरह बालकी खाल खीची जाती है उससे पहले यह क्यो नही सोचा जाता है कि इतनी गहरी और बारीक बातें क्या जनसाधारण समझ सकते है ? और अगर यही बात होती तो फिर यह कहनेकी क्या जरूरत थी कि वे तो हमारी देखादेखी ही करेगे और चौपट हो जायंगे ? चाहे जो भी करते। फिर भी लोग कभी पथभ्रष्ट होते ही नही । तब तो कृष्ण
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