ग्यारहवाँ अध्याय ७४५ कृष्णने दिखानेके पहले अर्जुनको दिव्य दृष्टि क्या दी, मानो कोई विलक्षण आला या यत्र आँखो पर लगा दिया। हाँ, तो देखनेकी ही आतुरतासे चटपट- अर्जुन उवाच मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसज्ञितम् । यत्त्वयोक्त वचस्तेन मोहोऽय विगतो मम ॥१॥ भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया । त्वत्त. कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥२॥ अर्जुन बोल उठा -मेरे ऊपर दया करके आपने अध्यात्म नामक जो परम गोपनीय बात कही है उससे मेरा यह मोह तो खत्म हो गया। हे कमलनयन, मैने आपके मुखसे पदार्थों के उत्पत्ति-प्रलय विस्तारके साथ सुने और आपका विकारशून्य माहात्म्य भी (सुन लिया) ।१।२। एवमेतद्यथात्थ परमेश्वर। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥३॥ मन्यसे यदि तच्छक्य मया द्रष्टुमिति प्रभो । योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥४॥ हे परमेश्वर, हे पुरुषोत्तम, जैसा आप कहते है वह तो ठीक ही है । (अब केवल) मै आपका वह ईश्वरीय रूप देख लेना चाहता हूँ। प्रभो, यदि आप ऐसा मानते हो कि मै उसे देख सकता हूँ तो, हे योगेश्वर, अपना अविनाशी रूप मुझे दिखाइये ।३।४। यहाँ प्रसगसे एक बात कह देनी है। अब तो अर्जुनने मान लिया कि कृष्णका जो कुछ भी अपने बारेमें कहना है वह अक्षरश: सही है, उसमे जरा भी शक नही है । और कृष्णने अपने अवतारकी बातके साथ ही यह भी तो कही दिया है मुझे मनुष्य शरीरधारी समझ जो लोग मेरा त्वमात्मान
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७२५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।