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७४४ गीता-हृदय उन्हीको देखने में आसानी होगी, मजा भी आयेगा और वात दिलमें बैठ भी जायगी कि ठीक ही तो कहते है। जैसा कहा वैसा ही देखते भी तो है। जरा भी तो फर्क है नहीं। नहीं तो सवोका देखना असभव होनेसे नाहककी परीशानी (Confusion) हो जाती और काम भी वैसा नही बनता। इसीलिये आगे अर्जुनने स्वयमेव कह दिया है कि भगवन्, आप जो कहते है वह अक्षरश सही है । इसमें शकशुभेकी गुजाइश है नही । हाँ, कमी यही रह गई है कि जरा इन्हे आँखो देख नही लिया है। तो क्या देव सकता हूँ ? यदि हाँ, तो बडी कृपा हो, अगर आप दिखा दे । इस कथनसे और चटपट प्रश्न कर देनेसे भी उनकी आतुस्ताका पता चल जाता है । जो देखा नही, सुना है, उसको देख लेना ही काफी है, यही उनका आशय है। इससे अब तकके मननकी पुष्टि होके निदिध्यासनमें प्रत्यक्ष सहायता भी हो जायगी। फिर तो स्वतत्र रूपसे युद्धके वाद अर्जुन यही काम कर सकेगे। ग्यारहवे अध्यायके पढनेसे पता चलता है कि कोई विशेषज्ञ अपनी प्रयोगशाला (Laboratory) में बैठके उन्ही बताई बातोका प्रयोग (experiment) शिष्योके सामने कर रहा है। ताकि उन्हें वे बखूबी हृदयगम कर ले, जिन्हें अबतक समझाता रहा है। अर्जुनको शक था कि भला ये चीजे देख सकेगे कैसे ? इसीलिये उसने कहा भी। जनसाधारण भी तो यही मानते है कि भला कही दो हवाओ-औक्सीजन तथा हाईड्रोजन-के समिश्रणसे ही पानी बन सकता है। मगर प्रयोग- शालेमे मब उनकी आँखोंके सामने विलक्षण प्राला और यत्र लगाके प्रत्यक्ष दिखाया जाता है तब मान जाते और आश्चर्यमें डूब जाते है । अर्जुनकी भी वही दशा हुई। आश्चर्यचकित होनेके साथ ही वह घबराया भी। क्योकि यहाँ भयकर और वीभत्स दृश्य भी सामने आ गये जो दिल दहलाने- वाले थे। "दिव्य ददामि ते चक्षु", "न तु मा शक्यसे" (१११८) के द्वारा