दसवाँ अध्याय ७२६ । माननेमे कौनसा औचित्य है ? इस तरह कहाँ-कहाँसे खीचखाँचके पदार्थों- को लाना, उन्हीके बलपर श्लोकका अर्थ करना और फिर भी यह मानना कि यह खीचातानी नही है, कुछ अजीबसी चीज है । जरा और भी तो देखिये । अगर यही अर्थ करना है तो फिर केवल 'महर्षय' कहनेसे भी यही सात लिये जाते, जैसे मनव कहनेसे सात ही आपने माने है। और अगर 'मनव'के साथ 'सप्त' विशेषणकी जरूरत नहीं हुई तो महर्षय के साथ भी क्या जरूरत थी ? आखिर जिन पौराणिक वचनोके बलसे यह अर्थ किया गया है वे तो कही चले जाते नही। वे तो 'सप्त'के रहनेपर भी रहते और न रहनेपर भी। फिर व्यर्थ ही उसके लिखनेकी क्या आवश्यकता थी। यह भी बात है कि जब सावणि, सावर्ण्य नामक दो मनुमोको भी हम पहले होनेवाले ही वता चुके है, इसीलिये ऋग्वेदमे उनका उल्लेख भी है, तो सातसे ज्यादा तो होई गये। फिर सात मनु कहनेकी हिम्मत उनने कैसे की ? केवल बहुवचनान्त 'मनव पदसे तो ज्यादा भी ले सकते है। कमसे कम नौ तो लेना ही होगा। इसी तरह यदि ‘महर्षय' कहनेसे उनके बताये सात लिये जायँ, तो वहदारण्यक- वाले सात तो जरूर ही लिये जाने चाहिये। फिर 'महर्षय 'का विशेषण यह 'सप्त' कैसे उचित होगा ? इसी प्रकार चत्वार का अर्थ यदि वासुदेव आदि चार ही हो, तो आगे जो यह कहा है कि वह मेरे मानस सकल्पसे ही पैदा हुए “मानसा जात", वह कैसे युक्ति-युक्त होगा? वासुदेवके ही मानससकल्पसे स्वयमेव वासुदेव ही पैदा हो, यह कैसी बात ? और इसकी जरूरत भी क्या थी? वासुदेव तो मौजूद थे ही। फलत. सकल्पके द्वारा केवल तीनको ही पैदा करते तो ठीक होता और काम भी चलता। वासुदेव तो कृष्णको और भगवानको भी कहते ही है । गीताने भी “वासुदेव सर्वमिति" (७१६) मे यही कहा भी है। फिर वासुदेवने ही अपनेको भी क्यो और किसलिये नाहक पैदा किया ? आखिर यह 1
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