दसवाँ अध्याय ७२५ ये ग्यारह 1 वह 'पारभ' और 'अशम' दोनोसे ही जुटता है । इसीको देहलीदीपक- न्याय कहते है। बीच द्वारमे जो दीपक रहता है वह बाहर-भीतर दोनो ही तरफ उजाला करता है । वही बात यहाँ भी है। इस तरह इसका अर्थ यह हो जाता है कि पूर्वके, शुरूके या यो कहिये कि सृष्टिके आरभके सप्त महर्षि या सप्तर्षि और शुरूके ही चार मनु, भगवानके मानसपुत्र है, मनके सकल्पसे ही उत्पन्न हुए लोग है। इसीलिये इन्हे भगवानके प्रतिनिधि मानके इनके द्वारा हुए सृष्टिविस्तारको भगवानका ही विस्तार, उसीकी विभूति मानते है । 'मद्भावा' गब्दका यही अर्थ है कि ये लोग मेरे ही स्वरूप है । अत मेरी जगहपर ही काम करते है आखिर समूची सष्टिका विस्तार खुद भगवान अकेले तो कर सकते नही । इसीलिये उनने अपने सहायक पैदा किये । पैदा करना भी क्या था ? उनने मनमे खयाल किया और ये आ हाजिर हुए। मानसपुत्रका यही मतलब है। असलमें प्रत्येक कल्प या सृप्टिमे चौदह मनु माने जाते है जिन्हे मन्वन्तर भी कहते है । हरेक मनुके शासनकाल और कामके समयको ही अन्तर या पहले और दूसरेके बीचका समय कहने के कारण हरेकको मन्वन्तर कहा गया। यही है पौराणिक कल्पना । इसीके साथ यह भी बात है कि हरेक मनु या मन्वन्तरके लिये भिन्न-भिन्न सप्तर्षि लोग पुराणोमे गिनाये गये है। मगर गीताने न तो चौदह मनुमोको ही माना है और न सब मिलाके पूरे ६८ महर्षियो या सप्तर्षियोको ही। गीताकी रचनाके समयतक इस कल्पनाका यह विस्तार हो पाया न था, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिये इसका नाम उसने न लिया। मालूम होता है तबतक केवल चार ही मनुओ और सात ही महर्षियोकी कल्पना हो पाई थी। इसीलिये उसने इन्ही दोको लिखा। यदि पीछे और भी हो तो गीताको उनसे मतलब भी क्या हो सकता है ? सृष्टिके शुरूमे उसका विस्तार कैसे हुआ यही बात बतानी
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