७२४ गीता-हृदय अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश. । भवन्ति भावा भूताना मत्त एव पृथग्विधाः ॥५॥ विवेकशक्ति, विवेक, मोहका ससर्ग कतई न होना, क्षमा, सत्य, इन्द्रियोपर काबू, मनपर काबू, सुख, दुख, पदार्थोका होना, न होना, भय, अभय, अहिमा, सवमे समवुद्धि या सबके साथ समानताका व्यवहार, सन्तोप, तप, दान, यश, अपयश (आदि) ये सभी विभिन्न पदार्थ में ही पैदा करता हूँ|४१५॥ जिन बीस पदार्थोको प्रधानतया इन दो श्लोकोमे गिनाया है उनका इस प्रसगमे इतना ही उपयोग है कि आत्मसाक्षात्कार या दिव्य-दृष्टि प्राप्त करने और तदनुकूल ही दूसरोको उपदेश करनेके लिये ये जरूरी है। इनके विना वह नजर और वह दृष्टि एक तो मिली नही सकती। मिलनेपर भी दूसरोको इन्हीके अनुकूल पथदर्शनमे किसीकी प्रवृत्ति होई नहीं सकती, जवतक ये गुण उसमें पूर्णरूपसे पा न गये हो। जिसे सुख-दुखका कटु अनुभव न हुआ हो, जो क्षमाशील न हो, जिसने भय-अभयकी खूबियाँ पौर कारनामे कभी देखे ही नहीं, वह क्या लोकसग्रह करेगा ? यही चीजें और ऐसी ही दूसरी भी उसे उस पोर जबर्दस्ती लगाती है, उसके दिलको पिघला देती है। महर्षय. सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तया । मद्भावा मानसा जाता येषा लोक इमाः प्रजाः ॥६॥ सबसे पूर्व या सृष्टिके आरभके सात महर्षि और चार मनु-ये सभी- मुझीसे मेरे मनके सकल्पसे ही पैदा हुए थे, जिनने दुनिया में ये प्रजाएं पैदा की-यह जनता पैदा की।६। इस श्लोकमें जो 'पर्वे' शब्द है वह 'महर्षय सप्त' और 'चत्वारो मनव 'के बीचमें आनेके कारण दोनो ओर जुटता है । "लोभ प्रवृत्तिरा- रभ कर्मणामशम स्पृहा" (१४।१२) मे 'कर्मणा'का भी वही हाल है।
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