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७२२ गीता-हृदय ? तो इसे विभूतियोग नामक अध्याय कहते है, जैसा कि औरोको ज्ञान- विज्ञानयोग आदि नाम दिये गये है। तव प्रश्न होता है कि यहाँ योगका अर्थ आखिर है क्या ? योग शब्द जिन अर्थोमें गीतामे वार-बार आया है वह तो इसका अर्थ है नहीं। इसके तो ज्यादेसे ज्यादा चमत्कार, करिश्मा, ऐश्वर्य आदि ही अर्थ किये जा सकते है । मगर तब क्या विभूतिसे काम नही चल जाता कि इसकी भी जरूरत हुई यह प्रश्न उठता है । आखिर विभूति भी तो चमत्कार या करिश्मा ही है । जादूगर जव नई-नई चीजे बताता है तो उसे करिश्मा ही तो कहते है। असलमे दसवे और ग्यारहवे अध्यायोमें यो ऊपरसे देखनेसे दो जुदी बातोका वर्णन मालूम होनेपर भी इनके विषयको एक ही मानके उसे दो भागोमे केवल बांटा गया है। इनमें पहला है 'कह सुनाऊँ वाला और दूसरा 'कर दिखाऊँ'का । दोनोको एक ही समझनेके लिये ही यहीपर एक ही साथ विभूति और योग शब्द शुरूमे ही कहे गये है। यही कारण है कि विभूतिके खत्म होते ही, 'कह सुनाऊँ के पूरा होते ही अर्जुनने ग्यारहवेंमें चटपट 'कर दिखाऊँ'के बारेमे प्रश्न कर दिया है और जरा भी देर न की है। कृष्णके भी 'कर दिखाने का उसके नवें श्लोकसे शुरू करनेके ठीक पहले पाठवेंके अन्तमे "दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्य मे योगमश्वरम्"में योग आ गया है । जो कुछ दिखाया गया है उसे ही वहाँ ईश्वरीय योग कहा है । इससे स्पष्ट है कि विश्वरूपका दिखाना ही योग है । दिखानेके भीतर ही देखना भी आ जाता है। इसीलिये विश्वरूप दर्शनमे दर्शनका अर्थ देखना-दिखाना दोनो ही है। अतएव दसवेंके "न मे विदु सुरगणा प्रभव" (१०।२) में जो प्रभव शब्द है उसका अर्थ प्रभुता या ऐश्वर्य करके उसके भीतर विभूति और योग दोनोको ही समझना होगा। कृष्णके कहनेका अभिप्राय यही है कि मै किस प्रकार इस विश्वप्रपचको बनाता