७२० गीता-हृदय जानते है, सो भी मुझ भगवानकी ही अनुकम्पासे । तभी तो जो अर्जुन चुप बैठा था उसे एकाएक खयाल हो पाया है कि ग्रोहो, जब ऐसी वात है तव तो मुझे खुद कृष्णसे ही अनुरोध करना चाहिये कि वे स्वयमेव ये बातें वताये और कहे कि किस प्रकार उनने यह विश्वका नाटक फैलाया है। कही ऐसा न हो कि मेरी इस चुप्पीका कुछ और ही अर्थ लगाके या तो इसे कतई छोड ही दे, या अगर सुनाये भी तो उस विस्तारके साथ नही जिसकी जरूरत है और उस मनोयोगसे भी नहीं जिसके करते विषयमे जीवन आ जाता है। इतना ही नहीं। आगे तो कृष्णको ही इस "कह सुनाऊँ"के बाद ही "कर दिखाऊँ" भी करना था। तभी तो दिलमें यह वात जाके वैठ सकती थी। इसलिये जब खुद ही वह कहेगे तो दिखाने या प्रयोग करनेमे भी न तो हिचकेगे और न आधे मनसे उसे करेंगे ही। इसीलिये उसने जोर दिया कि नहीं नही, महाराज, आप ही कृपा कीजिये और सुनाइये। उसके भीतर विपादके करते जो गडबड पैदा हो गई थी उसीके चलते जाने कितनी ही बाते भूल ही गई थी। उन्हीमे कुछ एकाएक अव याद भी हो 'आई। इमीलिये तो जहाँ पहले उसने कृष्णके वारेमे कहा था कि ग्राप तो अभी पैदा हुए है, फिर यह कैसे मानूं कि सृष्टिके आदिमें आपने विवस्वानसे यह बाते कही थी, तहाँ अब उसने यह भी कह दिया कि हाँ, हाँ, भगवन्, आपके बारेमे वडे-बडे महर्षियोसे भी सुना था वही, जो आप खुद कह रहे है । क्षमा करें, मेरी बुद्धि ही जानें क्या हो गई थी कि कुछ याद ही नही पडता था ! आपकी महिमा तो अपरम्पार है, इसमे कोई शक नहीं है। यह भी नहीं कि यह आपकी प्रगसामात्र है। यह तो वस्तुस्थिति है। इसलिये अब तो आपको अपनी लीला सुनानी ही होगी, चाहे जो कुछ हो जाय । इसके बाद तो भगवानके लिये कोई चारा ही न था। फलत फौरन ही १६वे श्लोकसे ही उन्हे शुरू कर देना ही पडा। पूरे २४ श्लोकोमें -
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