दसवाँ अध्याय ७१६ भी है और उन्हीका विलोप हो जानेसे वहाँ मतलव हो सकता है। फिर भी यह तो ठीक ही है कि जिस चीजको भगवान खुद कहेगे वह जितनी खूवी तथा प्रासानीसे जानी जा सकेगी वैसी दूसरोकी जवानी हर्गिज नही। आखिर इस चीजके करनेवाले, इस लीलाके फैलानेवाले और मूल कारण तो वही है न ? यह नाटक तो भगवानका ही फैलाया हुआ है न ? इसी- लिये इसका कच्चा चिट्ठा, इसकी हकीकत जितनी वह जानेगे उतनी और कोई क्या जानेगा? क्योकि वह तो उन्हीसे या दूसरोसे ही सीख-सुनके जानेगा और कहेगा न ? फिर उसके कहनेमे वह मजा कैसे आयेगा जो ठेठ भगवानके कहनेमे ? दूसरे ऋषि-मुनि या उपदेशक तो उसके ही बनाये हुए है न ? फिर यह कैसे आगा की जाय कि वे रत्ती-रत्ती बातें वखूबी जान सकेगे ? और जो भी जाने वे भी उस तरह कैसे समझा सकेगे ? ऐसे तो विरले ही हो सकते है जिन्होने आत्मज्ञानके द्वारा इन सभी चीजोका साक्षात्कार कर लिया हो। क्योकि “मनुष्याणा सहस्रेषु" (७।३) की भी बात तो आखिर इसी सिलसिलेमे कही गई है। और अगर किसी विरले माईके लालने ऐसी योग्यता भी प्राप्त की तो भी उसका मिलना आसान तो नही है। इसलिये आवश्यक हो जाता है कि भगवान स्वयमेव सारी दास्तान सुनाये । जब उन्हीकी कृपासे विवेक आदि सद्गुण औरोको मिलते है, जिससे वे ये बाते जानके दूसरोको भी जनायें; मन, इन्द्रिय आदिको कावूमे करके पहले इस विषयको अच्छी तरह स्वय देख ले, अनन्तर दयाई होके अन्योको भी बतायें, तो क्यो न भगवानसे ही यह चीज जानी जाय ? दसवे अध्यायके कुल ४२ श्लोकोमे जो शुरूके पूरे अठारह श्लोक इन्ही वातोंके कहनेमे खत्म हुए है उसका यही रहस्य है। उनमे भी पहले पूरे ग्यारह श्लोकोमे स्वय कृष्णने इस विषयकी गहनताके खयालसे ही सव कुछ कहा है और बताया है कि इसे विरले ही
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