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७१६ ' गीता-हृदय चार अगोकी जगह मानके यह दिखाया था कि यह वर्ण-विभाग और कुछ नही, केवल समाजके सचालनार्थ कामोका बँटवारा है । इसमे ऊँच-नीचका प्रश्न नही । प्रत्युत चारोकी अपने-अपने स्थान पर समान ही उपयोगिता है। हमने यही वात पहले लिखी भी है। लेकिन गीता पहले दोको श्रेष्ठ और शेष दोको कनिष्ठ-नीच--कहती है । छान्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषदोकी पचाग्नि विद्यावाली वात लिखते हुए हमने पहले बताया है कि उस जमानेमे क्षत्रियोका दर्जा ब्राह्मणोंके समकक्ष जैसा ही था, अगर ऊँचा न भी था। कमसे कम ब्राह्मणोका यह दावा तबतक न हो पाया था कि सब विद्यायें वही जानते है और उन्हींसे ससारको सीखनी होगी, सीखनी चाहिये, जैसा कि मनुस्मृतिमें लिखा है कि 'एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्नजन्मन । स्व स्व चरित्रशिक्षेरन् पृथिव्या सर्वमानवा" (२०२०) । इसलिये यह माननेकी काफी गुजाइश है कि ब्राह्मण ग्रथो एव प्रधान उपनिषदोके समयसे मिलता-जुलता ही समय गीताका है । या यो कहिये कि वही समय महाभारतका है। उपनिपदोकी जब खूब प्रधानता थी तभी गीता बनी। इसीलिये न सिर्फ उपनिषदोकी गते इसमे रूपान्तरसे बहुत ज्यादा आई, बल्कि इसकी सर्वमान्यताके ही खयालसे इसे भी रूपान्तरमे उपनिषद ही कहना पडा । नहीं तो उप- निषदोके सामने इसे कौन पूछता यह तो नियम ही है कि जिसकी चलती बनती है उसके ही पीछे चलनेसे काम बनता है। पीछे तो उप- निषदोको भी लोग भूलसे गये। मगर यह विषय स्वतन्त्र रूपसे विचारनेका है। यहाँ तो यो ही प्रसगसे थोडासा इशारा कर दिया है । प्रागेके अन्तिम श्लोकमे इस अध्यायका उपसहार कुछ इस तरह करते है कि जो वाते प्रधान रूपसे, लक्ष्यके रूपमे, कही गई है वे इसमे आ जायें- मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मान मत्परायण ॥३४॥ ?