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नवां अध्याय ७११ है। इसीलिये वह पत्र, पुष्पादिसे ही पूजन करता है। हाँ, जब दूसरा दल सभी पदार्थोको एक करके आत्मा-परमात्माका आईना मानता है तो यह उचित ही है कि वह जो कुछ भी करे उसे भगवानकी पूजा ही माने। २६वे श्लोकमे पहले दलकी और उसके बादके डेढ श्लोकोमें दूसरेकी बात कहके २८वेके उत्तरार्द्धमे उसका फल सन्यास और उसके द्वारा आत्म- साक्षात्कारके फलस्वरूप मुक्ति ही बताई गई है। पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥२६॥ जो (श्रद्धा) भक्तिसे मुझ परमात्माको पत्ते, फूल, फल (या) जल अर्पण करता है, मनपर काबू रखनेवाले उस मनुष्यकी भक्तिपूर्वक भेटेको मै स्वीकार करता हूँ।२६। यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥२७॥ हे कौन्तेय, जो दान, यज्ञ, योग, तप या और भी कोई काम करते हो वह सब कुछ मुझीको अर्पण करो-सब कुछ मेरी ही पूजा मानो।२७। शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥२८॥ इस प्रकार' कर्मोसे उत्पन्न और उन्हीमें पुन मनुष्योको जोडनेवाले बुरे-भले फलोसे तुम्हारा पिंड छूट जायगा । (उसके बाद क्रमश ) सन्यास मूलक योग या समाधिमे अपने मनको लगाके तुम मुक्त होगे (और इस तरह) हमे प्राप्त कर लोगे ।२८। समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषुचाप्यहम् ॥२६॥ (यद्यपि) में सभी पदार्थोमे एकरस हूँ (और इसीलिये) न मेरा