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नवा अव्याय ७०६ जो भक्तजन अनन्य भावसे मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते है, मुझमे ही निरन्तर लगे रहनेवाले उन लोगोका योगक्षेम मै (खुद) करता हूँ।२२॥ जो आवश्यक पदार्थ अप्राप्त हो उन्हे जुटाना योग है। जुटनेपर उनकी हिफाजतको क्षेम कहते है। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।।२३।। हे कौन्तेय, अन्य देवतायोके भी जो भक्तजन श्रद्धासे उनका यजन करते है वे भी यजन तो मेरा ही करते है। (फर्क यही है कि) विधिपूर्वक या उचित रीतिसे नहीं करते ।२३। अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनात च्यवन्ति ते ॥२४॥ क्योकि सभी यज्ञोका भोगनेवाला-उनके द्वारा आराध्य देवता-- और फल देनेवाला भी मैं ही हूँ। लेकिन वे मुझे यथार्थ रूपमे जानते ही नही। इसीसे चूक जाते है ।२४॥ यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यांति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥२५॥ (वात यो है कि) देवताग्रोके व्रत-पूजन करनेवाले उन्हीतक पहुँचते है, पितरोके व्रतवाले उनतक, भृतोके पूजक भूतोतक और मेरे पूजक मुझतक भी पहुँचते है ।२५॥ यहाँ 'अपि माम्'मे 'अपि'को 'माम् के बाद ही लगाके अर्थ करना ठीक है, जैसा कि “यान्ति मामपि” (७।२३) मे किया गया है। वहाँ तो वैसा हई। मगर यहाँ भी अभिप्राय वही होनेके कारण अर्थ भी वही होना चाहिये । इसी प्रकार जो 'तत्त्वेन' शब्द २४वेमे आया है उसका तात्पर्य यही है कि अन्य देवताओके रूपमें भगवानके पूजनेवालो को भगवान-