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७०८ गीता-हृदय तीनो वेदोमे बताये कर्मोके जाननेवाले (लोग) यज्ञोंके द्वारा मेरा पूजन करके सोमलताका रस पीते (और इस तरह) पापरहित होके स्वर्ग- प्राप्तिकी प्रार्थना करते है। वे इन्द्रके सुन्दर लोक-स्वर्ग-मे जाके वहाँ देवताओंके दिव्यभोगोको भोगते है । (पीछे) वही लोग उस विशाल स्वर्गके भोगोको भोग चुकने के बाद (अपना) पुण्य पूरा हो जानेपर (पुन ) मर्त्यलोकमे ही आ धमकते है। तीनो वेदोमें वताये धर्मोके करनेवाले भोगेच्छक लोग इसी तरह आवाजाही जारी रखते है ।२०१२१॥ यहाँ सोमपा शब्दका अर्थ है सोमरसके पीनेवाले। असलमे वैदिक यागोमेसे यहाँ एकका उल्लेख नमूनेके तौरपर ही हुआ है। ज्योतिष्टोम नामक वैदिक याग स्वर्गके ही उद्देश्यसे किया जाता था। इसमे प्रधान पदार्थ सोमलता ही मानी जाती थी। घी आदिकी जगह प्रधान आहुति इसी लताके रसकी दी जाती थी। ऐसा माना जाता है कि बर्फानी प्रदेशमें ही यह लता होती है। उसे मँगवाके पत्थरोसे कटते और रस निचोड़ते थे। उसी रससे देवतायोके लिये आहुतियां देके वचे-बचाये या यज्ञशिष्ट रसको यजमान वगैरह पीते थे। इसीलिये 'सोमपा' शब्द पाया है । इस प्रकार बडेसे भी बडे वैदिक यज्ञयागादिका परिणाम यही आना-जाना ही तो है। विपरीत इसके जो अनन्य भावसे आत्मचिन्तनमे लग जाते है वह न सिर्फ इस आवाजाही और जन्ममरणके चक्रसे ही बचते है, बल्कि इस ससारमे भी उन्हे किसी पदार्थकी कमी नही रहती है । अत उसके मुकाविलेमे यह कितनी ऊँची चीज है--"वह ज़वाल और यह जलाल" । इसीलिये उसके साथ इसका कोई भी मुकाबिला नही हो सकता है। यही वात प्रसगसे अगले श्लोकमे कहके फिर वही बात चालू करते है- अनन्याश्चिन्तयन्तो मा ये जना पर्युपासते । तेषा नित्याभियुक्ताना योगक्षेम वहाम्यहम् ॥२२॥