नवाँ अध्याय ७०७ की तरह जगत्को एक देखते है। इसीलिये सचमुच उनके सामने दोई रह गये-यात्मा या परमात्मा और पाईना । विपरीत इसके पहलेवालोके सामने तो अनन्त पदार्थ चट्टानकी तरह पडे है । इन सवोको तोडके इनकी ही तरह एक करना है, राजमार्ग बनाना है। इसमे परीशानी तो होगी ही । समय भी लगेगा। फिर भी ये दोनो ही आगे-पीछे लक्ष्यपर पहुँचेगे ही। फिर तो सर्वत्र उन्हे आत्मा ही दीखेगी। इसीलिये इनके वारेमे चिन्ता नहीं की गई है । मगर जो चूकनेवाले दूसरे प्रकारके है वह जगत्के विभिन्न पदार्थोमे या तो विभिन्न देवतायोकी भावना करते है, या इन्ही पदार्थो से किन्ही इन्द्र, महेन्द्रादि देवतागोका ही यजन-पूजन करते है। ये दोनो ही लक्ष्यसे बहुत दूर चले जाते हैं। इसीलिये इन्हे कष्ट भी भोगने पडते है। इन्ही दोनोकी दुर्गतिकी वात प्रागेके क्रमश २०, २१ तथा २३-२५ श्लोकोमे कही गई है। इनमे भी इन्द्रादिकी पूजा करनेवाले तो और भी नीचे है; क्योकि वे काल्पनिक देवताको मानके निरे खयाली ससारमे ही विचरते और स्वर्गादिके सुख चाहते है । विपरीत इनके दूसरे ऐसे है जो दृश्य पदार्थोको ही भगवान न मानके उसकी जगह देवताओकी ही भावना करते है। वे भूले तो है जरूर । मगर उनका ससार निरा खयाली नही है । उपनिपदोमे ऐसोका उल्लेख वहुत अाया है । इसीलिये वे कुछ ऊँचे है । यही कारण है कि शुरूके दो श्लोकोमे पहले लोगोकी वाते कहके और प्रसगसे बीचके २२वेमे असली लक्ष्यकी याद दिलाके पुन तीन श्लोकोमे दूसरे लोगोकी गाथा सुनाते हैं । विद्या मां सोमपा. पूतपापा यज्ञरिष्ट्वा स्वर्गति प्रार्थयन्ते । ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥२०॥ ते त भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशाल क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं प्रयोधर्ममनुप्रपन्ना गतागत कामकामा लभन्ते ॥२१॥
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