७०६ गीता-हृदय तीन प्रकारकी होती है। एक तो तपनेवाली जो जलको ऊपर उठाती या खीचती है । दूसरी उसे जमा करके मेघका रूप देनेवाली और तीसरी उसे बरसानेवाली । यही बात श्लोकमे लिखी है । ससारके कुछ पदार्थ अमर है और शेप मरनेवाले । ये दोनो ही जिन पदार्थों या विशेषताओंके करते ही ऐसे बने है उन्हीको अमृत और मृत्यु कहा है । सत्, असत्का अर्थ है स्थूल-सूक्ष्म या कार्य-कारण । सूक्ष्म पदार्थ दीखते नही । इसीसे खयाल होता है कि वे नही है, असत् है। इसी प्रकार कार्य बन जानेपर कारणकी स्वतत्र सत्ता मालूम पडती ही नही । इसीलिये पुराने लोगोने कारणको ही असत् भी कहा है। वह लापतासी चीज होती है। उसे ही ढूंढते भी है । कार्य तो सामने ही होते है । इस प्रकार इन चार श्लोकोमे विभिन्न रूपसे मुख्य-मुख्य पदार्थोको परमात्माका रूप गिना दिया। इस प्रकार अनेक रूपसे उसके चिन्तन एव ज्ञानयज्ञके साथ इसका मेल भी हो गया और ज्ञान-विज्ञानके सम्वन्धमें एक सीढी आगे बढ भी गये। मगर इस विभिन्नताके खयाल, इस तरहके ज्ञानयज्ञ या इस आगेकी सीढीका असली प्रयोजन यह विभिन्नता तो है नही। इसके द्वारा तो दरअसल विश्वव्यापी एकता, एकरसता तथा अद्वैतकी ही ओर बढना और अन्तमें वहां पहुंचके टिक जाना ही लक्ष्य है। इसलिये जिनकी दृष्टि इस लक्ष्यसे, और इसीलिये एकत्वरूपी ज्ञान- यज्ञसे भी, विचलित होके इस अनेकतामें फंसती है वह चूक जाते है, यह वात सदा याद रखनेकी है। चूकनेवाले भी दो प्रकारके होते है। एक तो वे जो विभिन्न पदार्थोमें एक भगवानकी ही भावना करते है। उनकी चूक यही है कि अनेक पदार्थोको भी देखते है। फिर भी उनने रास्ता पकड लिया है । फलत कुछ विलम्बसे असली जगहपर ही जा पहुंचेंगे। यह ठीक है कि उनसे भी पहले विराट्दर्शी पहुंचेंगे। क्योकि वे इनसे कुछ आगे जो है। वे अलग-अलग पदार्थोको देखते तो नहीं। हां, आईने- -
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।