नवाँ अध्याय ७०१ ही सम्बन्धमे भगवानका प्रश्न खामखा आनेसे उसके लिये यही मौका मौजूं भी था। ऐसा मौका फिर शायद ही आता। इसीलिये उनने कहना शुरू किया कि अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् । पर भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥११॥ सोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ॥१२॥ मेरे विलक्षण, निराले, निर्विकार (तथा) सर्वोत्तम स्वरूपको नही जान सकनेके कारण ही मूर्ख लोग मानव शरीरधारी मेरा तिरस्कार करते है-मुझे भगवान नही मानते है । (ये लोग) फिजूल आशाये बॉधते, फिजूल कर्म करते, फिजूल पढते-लिखते (एव) उलटी समझ रखते है । (क्योकि) भुलावेमे डालनेवाली राक्षसी एव आसुरी-राजसी एव तामसी-प्रकृति-स्वभाव-से मजबूर है ।११।१२। महात्मानस्तु मां पार्थ दैवी प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥१३॥ सतत कीर्तयन्तो मा यततश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥१४॥ हे पार्थ, इनके विपरीत देवी-सात्विक-प्रकृतिवाले महात्माजन मुझे ससारका मूल कारण मानके अनन्य मनसे मुझीको भजते है । (वे लोग) सदा भक्तिपूर्वक दृढ सकल्पके साथ मेरा कीर्तन करते हुए, प्रकारान्तर से (भी) यत्न करते हुए और मेरा नमस्कार करते हुए निरन्तर मुझीमे लगके मेरे ही निकट पडे रहते है-मेरी ही उपासना करते है ।१३।१४। ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते । एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥१५॥ दूसरे (महात्माजन) ज्ञानयज्ञसे ही मेरी पूजा करते हुए उपासना .
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