संन्यास और त्याग ५३ और यही कहता है कि सन्यासके जरिये किस तरह परम नैष्कर्म्यसिद्धि या सर्वात्मना कर्मत्यागकी तरफ आदमी जा सकता है । लेकिन उस सन्यासका स्पष्ट रूप तो बिना उस शब्दका उच्चारण किये ही आगेके "सर्वधर्मान्परित्यज्य" नामक ६६वे श्लोकमे ही बताया गया है। इस बातपर भी प्रकाश डालेगे। मगर अभी त्यागकी बात जान ले, तो अच्छा हो। जैसा कि कहा जा चुका है दूसरेसे लेकर ४८वे श्लोकतक त्यागके सम्बन्धकी ही बात कही गई है। सबसे पहले दो और तीन-दो- श्लोकोके दो-दो हिस्से करके चारो हिस्सोमे त्यागके सम्बन्धके चार मत कहे गये है जो ससारके विद्वानोमे प्रचलित है। उसके बाद चारसे लेकर छेतकके--तीन-श्लोकोमे कृष्णने त्यागके बारेमे अपना सिद्धान्त निश्चित रूपसे कहा है और उसीका स्पष्टीकरण किसी न किसी रूपमे ४८ तकके श्लोकोमे किया है । दूसरे श्लोकमे 'न्यास' और 'सन्यास' शब्दोको देखके यह समझनेकी भूल हर्गिज नहीं की जानी चाहिये कि पूर्वार्द्धमे 'सन्यास'का लक्षण कहा है । न्यास और सन्यास शब्दोका तो एक ही अर्थ है । फलतः कामनापूर्वक किये गये (काम्य) कर्मोके सन्यासको सन्यास कहते है, इस कथनका कोई अर्थ नही है। इसीलिये हम तो यही मानते है कि दूसरेके पूर्वार्द्धमे “कवयो विदु' -"सूक्ष्म बुद्धिवाले जानते है", उत्तरार्द्धमे "विचक्षणा. प्राहु"--"कुशल लोग कहते है" तथा तीसरेके पूर्वार्द्धमे "प्राहुर्मनीषिण"-"मनीषी लोग कहते है," और उत्तरार्द्धमे "अपरे प्राहु"--"दूसरे लोग कहते है"--ऐसा कहके चार मतवादो या सिद्धान्तो- का कर्मोके त्यागके बारेमे वर्णन किया गया है। साफ ही चारो एक दूसरेसे पृथक् मालूम पडते है । प्रश्नमें भी त्यागके बारेमे 'पृथक्' तत्त्व या अलग-अलग हकीकत पूछी गई है। इसीलिये उत्तर भी उसी ढगका दिया गया है । इस प्रकार सक्षेपमे पहला मत है केवल काम्य कोके
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