६६२ गीता-हृदय शुरूमे यही आई है भी। नवे अध्यायके चार (१६-१६) श्लोकोमे यह वात पाई जाती है। सातवे अध्यायके पाँच (८-१२) श्लोकोमे भी इसी तरहकी बात आई है। उम अध्यायके "अह कृत्स्नस्य जगत" (७६)तथा "ये चैव सात्त्विका" (७/१२)के ही स्थान पर "गतिर्भर्ता" (६।१८,१६) आदि दो श्लोक प्रतीत होते है। इनमे कुछ ज्यादा व्योरा भी नही मिलता है, सिवाय इसके कि उन्नीसवेके पूर्वार्द्धमे सूर्यकी बात 'तपामि'-तपता हूं--कहनेसे प्रतीत होती है। शेप श्लोकोमे अधिकाश वेदके ही ऋतु, यज्ञ, मत्र आदि तथा ऋक्, साम, यजु मयोको ही कहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि सातवे अध्यायके पृथ्वी आदि सभी पदार्थोको तो अध्यात्म, अधिभूतादिके रूपमे उसी अध्यायमें और आठवेंमै भी ले लिया है । वही उस पर प्रकाश भी काफी डाला है। उसका केवल "प्रणव सर्ववेदेषु" (७१८) बच गया है जरूर । इसीलिये उसीका विशेष विवरण और विश्लेषण इस अध्यायमे करके उस वातको अच्छी तरह समझाया है । ऐसा लगता है कि "प्रणव सर्ववेदेषु" सूत्र है। वेद तो आखिर शब्द ही है न ? और शब्दके विना अर्थका पता नही लगता। फलत शब्द अर्थमे व्याप्त है। यहाँ तीसरे श्लोकमे उसी व्यापक वस्तुका उल्लेख है, न कि दूसरेका । अत उससे ही शुरू करनेका मतलब यही प्रतीत होता है । इसीके साथ यज्ञो पर भी कुछ विशेष प्रकाश दूसरे रूपमें इसी अध्यायमे पड गया है, जव कि "विद्या मा"मे यज्ञोंके स्वर्गादि फलोके साथ ही और वाते भी कही गई है । यह पहलू पहले उठाया नही गया था। फिर भी अधियज्ञ कहनेसे बात तो दिमागमे थी ही। इन्ही सब बातोका खयाल करके- श्रीभगवानुवाच तु गुह्यतम प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहित यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसे शुभात् ॥१॥
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