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नवाँ अव्याय है । इसीलिये इसकी जानकारी सवोसे बढके जरूरी है। यदि इस अध्यायका विषय राजविद्या-राजगुह्य बताया गया है तो इसका यह आशय कदापि नही है कि यह कोई और ही चीज है। यह तो उसी ज्ञान-विज्ञानका ही दूसरा नाम है । यह नाम उसी चीजकी महत्ताके पहलूपर जोर देनेके ही लिये उसे दिया गया है, यह तो अभी-अभी कहा है। नामान्तर और प्रकारान्तरसे एक ही बातका प्रतिपादन उसमे सरसता लानेके साथ ही आकर्पक भी होता है। अगर हम इसमे प्रतिपादित विषयकी जानकारीके लिये खास तौरसे नजर डाले कि कौन-सी बात कब और कैसे कही जा रही है तो पता चलेगा कि शुरूके तीन श्लोक तो भूमिकाके ही रूपमे है । वे इसी वातको दिलमे बैठा देनेके लिये है कि इसका वारबार विमर्श और मनन अत्यत आवश्यक है। उसके बादके तीन (४-६) श्लोकोको भी देखनेसे पता लग जाता है कि वे सातवे अध्यायके शुरूके दो (६,७) श्लोकोके ही स्थानमे आये है। फलत इनमे कुछ तो वही बाते ज्योकी त्यो है और कुछ उन्हीका विवरण एव स्पप्टीकरण है। उनके बादके आठ (७-१५) श्लोकोपर ध्यान देनेसे स्पष्ट हो जाता है कि वे भी एक प्रकारसे सातवे अध्यायके ही सात (१३-१६) श्लोकोके रूपान्तर है । प्राय वही वाते इनमे प्रकारान्तर- मे कही गई है। इसी प्रकार २०वेसे २५वे तकके छे श्लोक भी सातवेके २०से २६ तकके सात श्लोकोके ही रूपान्तर है और यह वात बहुत साफ है। इसी तरह और भी बची-वचाई बाते मिलती-जुलती है, हालांकि कहने और प्रतिपादनकी रीति नई है, विलक्षण है और यही इसकी खूबी है । मननमे इसीकी जरूरत होती भी है । अ आइये जरा विज्ञानके मुख्य विषयको भी देखे । सृप्टिके विभिन्न पदार्थों को लेके उनका विश्लेषण करना और इस प्रकार उन्हे आत्मा- परमात्माका रूप मिद्ध करना यही तो मुख्य बात है। मातवे अध्यायके