५२ गीता-हृदय आया है। सन्यासके बारेमें मतभेद या अनेक राये न होनेके कारण ही उसकी बात उनने पीछे उठाई है । सो भी बहुत दूर जाके । असलमें त्यागका व्योरा और विवरण देनेके बाद ही सन्यासकी बात समझनेमे आसानी भी हो जाती है। इसलिये भी त्यागके मुतल्लिक सारी बाते कहनेके बाद ही सन्यासको वात कहना उचित समझा गया है। यही कारण है कि प्रारभसे लेकर पूरे ४८ श्लोकोमें कर्मके सम्बन्धकी हो सारी वातें व्योरेके साथ कही गई है, जिनसे त्यागके स्वरूप और उसकी हकीकत- पर पूरा प्रकाश पड़ जाता है। फिर ४६वें और ५७वें श्लोकोमें सन्यासका जिक्र आया है। मगर ५७वें श्लोकवाला सन्यास शब्द तो ठीक वैसा ही है जैसा कि तीसरे अध्यायके “मयि सर्वाणि कर्माणि सन्यस्याध्यात्मचेतसा" (३०) में आया है। क्योकि वहाँ लिखा है कि "चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्यस्य मन्पर ।" मालूम होता है कि प्राय अक्षरश एक ही श्लोकका यह हिस्सा दोनो जगह लिखा गया है। तीसरे अध्यायवालेमे जो 'अध्यात्म' शब्द ज्यादा प्रतीत होता है, उसकी जगह अठारहवे वालेमें आगे "बुद्धि योगमुपाश्रित्य" लिख दिया है। और भी आगे-पीछे बहुतसी वातें मिल जाती है । फलत वहाँ भी सन्यासका वही पुराना सर्वजन विदित अर्थ ही है जिसे ईश्वरार्पण या मदर्पण आदि नाम दिया गया है। सन्यास शब्द सन्यासकी उस हकीकतको यहाँ नहीं बताता है जिसके बारे में सवाल हुआ है। वाकी बचा ४६वें श्लोकका सन्यास । ठीक है यह तो उसी बातको कहता है जिसकी-जिस हकीकतकी जानकारीके लिये शुरूमें ही शका की जा चुकी है, प्रश्न हो चुका है। यदि इस समूचे श्लोकको गौरसे विचारा जाय तो यह बात साफ हो जाती है। हम खुद आगे यह विचार करेंगे। मगर इतना तो जान लेना ही होगा कि यह श्लोक भी उस सन्यासकी हकीकत या उसके स्वरूपकी ओर सिर्फ इशारा ही करता है
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