पाठवाँ अध्याय ६८१ कहाँ ? यदि शक्ति रहे भी तो दूसरी बात यह है कि जब प्राणको भौगोके बीच दृढतासे टिकानेके बाद ब्रह्मरन्ध्रमे पहुँचा देते है, धारणा या समाधि- की दशामे मनको भी वही टिकाये अचल रखते है और इसीके लिये इन्द्रियो- के सभी द्वार बन्द कर दिये जाते है, तो फिर जबान हिलेगी कैसे ? इसीलिये वहाँ बात ही दूसरी है। दरअसल बात यो है कि योगियोका यह कहना है कि मूर्द्धा या ब्रह्म- रध्रमे निरन्तर प्रो प्रोकी गभीर ध्वनि होती रहती ही है। किन्तु हमलोग उसे सुन पाते नही। कान मूंदने पर घर्र-धर्रकी जो आवाज मालूम होती है वह उसीका विकृतरूप माना जाता है । हाँ, प्राणको ब्रह्मरन्ध्रमे पहुँचाके समाधि करने पर वह अखड ॐकारनाद सुनाई पडता रहता है। यही उसका उच्चारण है। उच्चारण तीन प्रकारका माना भी जाता है-बोलके, केवल जबान हिलाके और केवल मनसे । सो वहाँ मानसिक ही है। मन वही एकाग्र है और वह नाद उसीको सुनाई देता है । इतनेसे ही उसे मानसिक उच्चारण कहते है। योगी यह भी मानते है कि वह नाद इतना मधुर है कि मन और प्राण दोनो ही उसीमें भूल जाते है, लुब्ध हो जाते, रम जाते है । उस ॐकारको ब्रह्मका प्रतीक या सूचक मानके उसे तथा ब्रह्मको एक भी कह देते है, जैसा कि विष्णुके प्रतीक शालग्रामको ही विष्णु कह देते है । लेकिन ये सारे काम उन्हीके लिये है जिनके ज्ञानका परिपाक नही हुआ है । फलत जिन्हे मस्ती नही आई है। क्योकि जब तक कोर-कसर न रहे यह प्रपंच करनेकी जरूरत ही क्या है ? इसीलिये पूर्ण ज्ञान और आत्म-साक्षात्कारवालेको यह सव नही करना होता है । यही बात आगेके श्लोकमे यो लिखी है- अनन्यचेताः सतत यो मां स्मरति नित्यशः । तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥१४॥
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