६७६ गीता-हृदय कि शरीरमे ही अधियज्ञका जानना जरूरी है । क्योकि यज्ञचक्रका सम्बन्ध सृष्टिसे होनेके कारण उसका अनुष्ठान हर हालतमें अनिवार्य होनेसे मरणके समय वह बाहर तो हो सकता नही। इसलिये शरीरमें ही यदि उसका पता लग जाय तो यह वडा लाभ हो जाय कि मरणकालमें भी यज्ञक्रिया निर्विघ्न होती रहे । इसीलिये उसने यह भी प्रश्न कर दिया कि यदि ऐसा, कोई अधियज्ञ है तो कैसे ? इसका अभिप्राय इतना ही है कि पूरा इत्मीनान हो जाय । कभी शक-शुभा न हो सके । अभीतक दो श्लोकोमे जो उत्तर दिये गये है वह तो सिर्फ छे प्रश्नों के ही है। जो अधियज्ञ शरीरमे है वह कैसे है, का उत्तर अभी बाकी ही है और प्रयाणकालमे परमात्माके साक्षात्कारका उपाय भी अभीतक नहीं बताया गया है। इनमें प्रयाणकालवाले प्रश्नका उत्तर आगेके आठवे श्लोकसे शुरू होके तेरहवे श्लोकमें पूरा हुआ है। वात बहुत वही है। वह केवल जाननेकी ही चीज न होके करने या अनुष्ठानकी वस्तु है। इसीलिये उसकी रीति बतानेमे कुछ विस्तार करना ही पडा है । रह गये वीचके ५से ७ तकके तीन श्लोक । बस, इन्हीमे कथ या कैसेका उत्तर आया है। अर्जुनने तर्क-दलील पूछी थी। इसीलिये कृष्णको युक्तियाँ देनी पडी। फिर तो उत्तर लम्वा होना ही था । उत्तरका निचोड यही है कि मनुष्य जब अन्त समयमें मुझीको स्मरण करता हुआ शरीर छोडता है तभी मुक्ति पाता तो फिर अधियज्ञ इस देहमे नहीं तो और कहाँ है ? अन्तकालमें वाहर तो जाना-आना हो सकता नहीं । अन्तमे जिस चीजमे मन टिकता है मरनेके बाद वही बनना पडता है यह भी नियम है । इसलिये मरणके समय मुझमें ही मनको टिकाना जरूरी हो जाता है। नही तो सब किये-करायेपर पानी जो फिर जायगा । परन्तु यह तो हो सकता नही, यदि यज्ञपुरुष या परमात्मा कही बाहर हो । इसलिये मानना पडता है कि शरीरके भीतर ही यज्ञपुरुष या अधियज्ञके
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