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आठवां अध्याय ६७५ ? १ है ? कर्म क्या है ? अधिभूत भी कौन कहा गया है ? अधिदैव किसे कहा जाता है ? इस शरीरमे अधियज्ञ कौन है और क्यो है ? मरणकालमें भी मनको काबू रखके लोग आपको कैसे देखते है ? ११२। श्रीभगवानुवाच अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः ॥३॥ अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥४॥ श्रीभगवान बोले-हे देहधारियोमे श्रेष्ठ, जो किसी भी दशामे नष्ट नही होता वही ब्रह्म है, पदार्थोका जो अपना रूप है वही अध्यात्म कहा जाता है, पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति (आदि) जिससे हो उसी त्याग या क्रियाको कर्म नाम दिया गया है, पदार्थोकी विनाशिता ही अधिभूत है और व्यापक परमात्मा ही अधिदैवत है। इस शरीरमे अधियज्ञ तो मै ही हूँ ।३।४। प्रश्नोके जो उत्तर दिये गये है उनपर भी पहले ही प्रकाश डाला गया है जरूर । मगर एक चीज स्पप्ट नही हुई है। इसीलिये उसीके सम्बन्धमे कुछ कहना आवश्यक हो जाता है । प्रश्नोके देखनेसे पता चलता है कि कुल आठ प्रश्न किये गये है। यद्यपि सातवे अध्यायके अन्तमे कही गई जिन वातोको लेके ये प्रश्न हुए है वह सात ही है, तथापि अधियज्ञके वारेमे दो प्रश्न होने के कारण ही इनकी सस्या आठ हो जाती है। अधियाके वारेमे औरोकी ही तरह सीधे ही यह सामान्य प्रश्न करनेके बजाय कि अधियज्ञ क्या है या कौन है, उसने एक तो यह पूछ दिया कि इस शरीरके भीतर अधियज्ञ कौन है ? दूसरे यह कि यदि है तो कैसे है, क्योकर है ? इसके बाद ही प्रयाणकालवाली वात आनेके कारण अर्जुन सोचता था