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६७२ गीता-हृदय है और सर्वत्र पाया करती है। असलमे जन्मके कष्टका तो अनुभव रहना नही। इसीलिये कष्ट दिखानेके लिये जरा लिखा है। मरणका कप्ट खुद देखते ही है । जन्मका कष्ट माँ अनुभव करती है, न कि बच्चा । जन्म कहनेसे जीवनभरके कष्ट आ जाते है। इसी प्रकार कर्मका अर्थ केवल यज्ञयागादि न होके सृष्टिका सारा व्यापार ही है, जैसा कि आठवे अध्यायमें लिखा है। आत्मज्ञानीको सृष्टिके समस्त व्यापार नजर आने लगते हैं कि कैसे क्या बनता है, जमीन आदि कैसे बनती है, वनी है। तभी तो उसे निस्सन्देह अद्वैत ज्ञान होता है । इस अध्यायका विषय ज्ञान-विज्ञान है यह तो कही चुके है। इतिश्री० श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥ श्रीमद्भगवद्गीताके रूपमे० जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका ज्ञान-विज्ञान योग नामक सातवाँ अध्याय यही है ।