सातवाँ अध्याय ६६६ लेकिन इस प्रश्नकी जरूरत ही क्या थी, यह पूछा जा सकता है । यदि भगवानकी दृष्टि भी तग हो जाय तो हमारा क्या विगडता है ? अर्जुनका क्या घटता था ? उसका काम तो वैसे ही चलता रहता । आखिर उसकी दृष्टि सकुचितसे विस्तृत तो हो गई नही । यह वात पहले कही जा चुकी ही है। दरअसल अर्जुनकी और दूसरे लोगोकी भी हानि जरूर ही थी यदि भगवानकी नजर भी तग हो । क्योकि तब तो गीताका जो उपदेश है और खासकर सृष्टिके सम्बन्धमे जो बाते कृष्ण कह रहे थे उनपर अविश्वास करनेकी ही नौबत आ जाती। जब साधारण लोगो जैसी ही या उनसे भी गई गुजरी समझ उपदेशकके पास हो तो उसकी बातका क्या ठिकाना ? उसमे विश्वास करेगा ही कौन ? इसलिये ही यह कहना पड़ा। लोगोकी दृष्टि ऐसी क्यो होती है और भगवानकी नही यह वात २७वाँ श्लोक वताता है। यह ठीक है कि जीव और परमात्मा एक ही है । दोनोमे वस्तुगत्या कोई भी फर्क नही है। फिर भी जीवोके साथ अनादिकालसे काम-क्रोध तथा रागद्वेषका भारी पचडा लगए है और यही सब गुडगोवर करता है। यह बात बार-बार कही गई है। तीसरे अध्यायके अन्तमे तो इसपर बहुत ज्यादा प्रकाश भी डाला गया है कि इन रागद्वेषोके चलते क्या-क्या अनर्थ होते है और इन्हे खत्म कैसे किया जा सकता है । किन्तु ये दोनो भगवानमे है नही । इसलिये वहाँ कोई गडवड हो पाती नही। इन रागद्वेषोके चलते अपने-पराये, सुखदु ख, शत्रुमित्र आदि द्वन्द्वोके बखेडे उठ खडे होते है। फिर तो मनुष्यका मानस पटल पक्का अखाडा ही बन जाता है, उसकी गर्द उड जाती है, धज्जियाँ उड जाती है और चारो ओर अँधेरा जैसा छा जाता है। यही है द्वन्द्वसे होनेवाला मोह । इसीको दूसरे अध्यायमे क्रोधके भीतर ही गामिल कर दिया है । उसके बादवाले समोहको ही यहाँ मोह कह दिया है। यही है किकर्तव्य-
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