६६८ गीता-हृदय भारत। वेदाह समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मा तु वेद न कश्चन ॥२६॥ हे अर्जुन, मै तो पुराने गुजरे हुए, वर्तमान एव भविष्य सभी पदार्थोको देखता हूँ। लेकिन मुझीको कोई नही देखता ।२६। इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहन सर्वभूतानि समोह सर्गे यान्ति परन्तप ॥२७॥ हे भारत, हे परन्तप, रागद्वेषसे पैदा होनेवाले द्वन्द्वके झमेलेके चलते सभी प्राणियोको जन्मसे ही भल-भुलैयाँमे पड जाना होता है ।२७। येषान्त्वन्तगत पाप जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मा दृढव्रता ॥२८॥ (लेकिन) जिन पुण्यकर्मा लोगोके पाप खत्म हो चुके है, वे द्वन्द्वोंके झमेलेसे छुटकारा पाके मुझ परमात्माको ही बडी मुस्तैदीसे पकड लेते है ।२८ बीचमे प्रसगवश जो इन तीन श्लोकोमे लिखी बातें आ गई है उनके बारेमे कुछ और भी जान लेना आवश्यक है। यह ठीक है कि भगवानपर पर्दा होनेसे उसकी भी दृष्टि सकुचित होनेका प्रश्न पैदा होता है । उसका उत्तर देना भी इसीलिये जरूरी हो जाता है । इसीसे कह भी दिया है कि भगवान तो त्रिकालदर्शी है और सब कुछ जानता है । मगर लोग ही उसे जान नही सकते । इसका कारण भी यही है कि इस मायाकी नीदने भगवानको सुलाया तो है नही कि उसकी जानकारी जाती रहे और वह सपने देखने लगे। यह तो जीवो या जनसाधारणकी ही नीद है, जिससे उनकी आँखें वन्द है। फलत वे परमात्माको, जो उन्हीकी आत्मा है, देख नहीं सकते। इसीलिये जरूरत भी इस बातकी है कि भगवानमें लगन लगाके इस नीद एव मायाको मिटाया जाय, जैसा कि पहले इसी अध्यायमें कह दिया है।
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