६६० गीता-हृदय पृथ्वीके गन्धको पुण्य या सुन्दर गन्ध कहा है, जिससे पता लगता है कि दुर्गन्ध परमात्माका रूप नही है। दूसरे काम या कामनाको भी कहा है कि वह धर्म-विरोधी न हो तो भगवानका रूप ही है। फलत धर्म-विरोधी कामना या अभिलाषा उसका रूप नही है। इससे सिद्ध होता है कि गीताने दुर्गन्धकी स्वतत्र सत्ता न मानके उसे विकार या खरावी ही माना है, और सृष्टिके प्रसगमे विकार या खरावीके कहनेके मानी हो जाते है सृष्टिके नाशके। इसीलिये उसे छोड दिया। इसी तरह "धर्मो धारयतेप्रजा "के अनुसार धर्म उसीको कहते है जो सृष्टिको कायम रखनेगें सहायक हो । फलत धर्म-विरोधी चीज सृष्टिका नाशक बन जायगी। यही कारण है कि सृष्टिकी बातें गिनानेमे प्रलयके सामानोको छोड़ दिया है। अन्तमे तो “वीज मा सर्वभूताना" में यह भी कह दिया है कि यह तो नमूनेके रूपमे कुछी पदार्थों को गिनाया है। असलमे तो सभी पदार्थोका सनातन वीज परमात्मा ही है। आमका वीज गुठली भले ही हो । मगर वह तो सनातन नही है । वह तो खुद भी नष्ट हो जाती और पैदा होती है । फलत उसका भी वीज कोई न कोई हई। इस तरह बढते-बढते अन्तम ऐसी जगह पहुंचना होगा जिस वीजका नाश नही होता, जो सदा रहता है और जिससे सभी पदार्थ क्रमश. बनते है, पैदा होते है। वही है मूल कारण या सनातन वीज और वह आत्माके सिवाय और कुछ नहीं है । आखिरी श्लोकमे जो यह कहा है कि सभी पदार्थ परमात्मा ही है, न कि मै ही उनमे हूँ, उसका कुछ मतलव है। अब तक रस, गन्ध आदिके रूपमे सभी पदार्थोके जिन मूल कारणोंको बताया है उन्हें देखने पता चलता है कि ने उन्ही पदार्थोंमें रहते है। सप्तमी विभक्ति लगा. लगाके यही कहा भी गया है। मालाके दानेका जो दृष्टान्त दिया है उमम भी सूत दानोंके भीतर ही है, न कि दाने सूतके भीतर । इससे कोई ऐमा न समझ ले कि परमात्माके आधार ये भौतिक पदार्थ ही है, इसीलिये कहना 1 1
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