६५८ गीता-हृदय कहा है कि वह सवोको कायम रखता है, उनमें हलचल या क्रिया जारी रखता है । असलमे क्रिया ही तो अस्तित्वका लक्षण है और वह है वायुती ही चीज । इसीलिये छठे अध्यायमे कहा है कि वायुको रोक देना या उसकी क्रिया वन्द कर देना असभव है । तब तो दुनिया ही खत्म हो जायगी। शरीरके भीतर खुनका सचार क्षण भर भी रुका कि मरे । पदार्थोके भीतरसे नये-पुराने परमाणुप्रोका जाना-आना स्का कि वे खत्म हुए। यही कारण है कि वायुके हीरको-सारको-लेनेकी अपेक्षा समूचे वायुको ही “जीवन सर्व भूतेषु" (७६) में जीवन शब्दसे ले लिया है। जीवनका सीधा अर्थ है प्राण । मगर दरअसल उसके मानी है अस्तित्व जिससे कायम रहे, या स्वय अस्तित्व ही। वायुको जीवन भी कहते है। पानी भी तो दो वायुवोके समिश्रणसे ही बनता है । इसीलिये उसे भी कही-कही जीवन कहा गया है। वायुको भूतोमे न गिननेका एक और भी कारण अन्तमें इसी अध्यायमे हमने दिखाया है। इस प्रकार जगत्के मुल भूत पचभूतोको ही आत्माका रूप बना दिया है । इसके बाद कुछ खास-खास चीजे चुन ली है। इनमें सूर्य और चन्द्र भी आये है । सचमुच ही ये दोनो जगत्के बडे कामके है। चन्द्रके वारेमें तो पन्द्र वे अध्यायमें कह दिया है कि अमृत या रसके रूपमें सभी अन्नादिको पुष्ट करता है, जिन्हें खाके सभी पष्ट और जीवित रह सकते है। इसी प्रकार सूर्य समस्त शक्तियोका भडार, सभी शक्तियोका देनेवाला पहले भी माना गया है। आजके विज्ञानने भी ऐसा ही माना है । अव यदि इन दोनोंके प्रकाशको हटा लें तो इनमे रहेगा ही क्या ? असलमें मृर्यको तो "प्रकाशका पुज ही" कहा है, "तेजसागोलक सूर्य" । चन्द्रमामें भी मृर्यका ही प्रकाश माना जाता है। उसे प्रकाशका स्वतत्र पुज नही माना है। यही कारण है कि दोनोका सार प्रकाश ही बनाया गया है। यदि प्रकागके अलावे इन दोनोमें और भी स्थल पदार्थ मानें, जैसा कि आज
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