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६४६ गीता-हृदय हे कुरुनन्दन, वहाँ उसे पूर्व जन्मवाली बुद्धि ही मिल जाती है । इसी- लिये योग-सिद्धि के लिये और भी ज्यादा यत्न करता है ।४३। पूर्वाभ्यासेन तेनैव लियते झवशोऽपि सः। जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥४४॥ उस पूर्व जन्मके अभ्यासके ही फलस्वरूप वह जवर्दस्ती उधर ही खिच जाता है। (यही कारण है कि) योगकी जानकारी एव प्राप्तिकी इच्छावाला भी शास्त्रीय विधि-विधानकी पर्वा नहीं करता ।४४॥ असलमे पहले श्लोकमे यह कहने पर कि वह इस. जन्ममें और भी ज्यादा यत्न योग-सिद्धिके ही लिये करता है, यह प्रश्न स्वयमेव पैदा हो जाता है कि कैसे ? दूसरे लोग ऐसा नहीं करते, वही क्यो करता है ? इसका उत्तर इस श्लोकके पूर्वार्द्धमे दिया गया है कि पूर्व जन्मका वह प्रवल सस्कार ही उसे योगकी ओर बलात् घसीट ले जाता है। फलत इच्छा न रहने या परिस्थियोके विपरीत होने पर भी उसे उसी काममें लगना ही पडता है। इसपर जो जबर्दस्त प्रश्न पैदा होता है वह यह कि, माना कि सस्कार जबर्दस्त है और उधर घसीटता भी है सही। मगर जब उसने कही जन्म लिया तो ब्रह्मचर्यादि आश्रमोसे ही होके तो सन्यासी बनेगा और समाधि- का अभ्यास करेगा। यह तो सभव नही कि एकाएक सन्यासी ही वन जाय । क्योकि वेदशास्त्रोके विधि-विधान इस सम्बन्धमे मौजूद ही रहते है, जो इन आश्रमोको क्रमश पूरा करने पर ही पूरा जोर देते है । ऐसी दशामे जब ये इधर खीचेंगे और पूर्व सस्कार उधर, तो ज्यादेसे ज्यादा यही हो सकता है कि दोनोकी खीचतानमे वह किसी ओर या तो झुकेही नही, या थोडा-बहुत दोनोके अनुसार करे। वह सिर्फ पूर्व जन्मके सस्कारो- के अनुसार योगाभ्यास ही करेगा, यह कैसे होगा इसीका उत्तर इस श्लोकके उत्तरार्द्धमें है कि जब योग-सिद्धिकी ?