छठा अध्याय ६४१ यहाँ उपाय तो कुछ बताये गये है नही । इसलिये पहले ही बताये उपाय लेने चाहिये। हाँ, तो इतना सुनने पर अर्जुनकी निराशा जाती रही जरूर । मगर इसकी कठिनाईका विचार करके उसे खयाल आया कि एक जन्ममे तो यह पूरा होनेका नही । यदि दूसरे-तीसरे आदि जन्मोमे पूरा करनेका खयाल करे तो ठीक नही। क्योकि एक जन्ममे जो कुछ भी किया-दिया और पढा-लिखा होता है वह तो अगले जन्म भूली जाता है । आखिर इसके पहले भी तो हमारा जन्म हुआ था। मगर हमे उसकी एक भी बात कहाँ याद है ? हमे तो उसका कुछ भी पता नही। ऐसी दशामे फिर भी वही असभव-सी बात आ जाती है। यही ठीक है कि शायद किसी सौभाग्यशाली पुण्यात्माकी समाधि इसी जन्ममे पूर्ण हो जाय। मगर आमतौरसे तो लोग अत्यन्त चचल मनवाले ही होते है । फलत उनके यत्नसे इसी शरीरमें सफलता होगी तो नही ही। फिर उनकी क्या गति होगी ? वे तो दोनो पोरसे गये। एक तो कर्म-धर्म छोडा। इसीलिये उससे जो सद्गति होती सो तो हो पाई नही। दूसरे योग भी पूरा हुआ ही नही कि इसीका मजा मिलता। इसलिये उनकी तो वही दशा हुई कि "दोनो ओरसे गये पाड़े। न मिला हलवा न मिला माडे ।" लेकिन फिर मनमे दूसरा खयाल आया कि आखिर यह भी तो एक महान् कार्य ही है । तो क्या इसके पूरा न होने पर भी इसका कुछ न कुछ सुन्दर फल नही होना चाहिये ? इसी पेशोपेश और दुविधेमें पड़े हुए-- अर्जुन उवाच प्रयति. श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । अप्राप्य योगससिद्धि कां गति कृष्ण गच्छति ॥३७॥ ४१
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