गीताका योग ४७ 1 . बारहवेंके दसवेमे 'मदर्थ' शब्द भी इसी मानीमें है। और भी ऐसे ही शब्द आये है। मगर इतना ही नहीं है । ठेठ दूसरे अध्यायसे ही शुरू करके अठारहवे अध्यायतक कमसे कम बीस बार सग, आसक्ति, असक्त आदि आये है और सिवाय कर्ममे आसक्ति या करनेके हठके त्यागके और कोई अर्थ इनका होई नही सकता। ये बीस स्थान तो ऐसे है जहाँ निस्सन्देह कर्मोका हठ बुरा ठहराया गया है। चौथे अध्यायके २१वे श्लोकमे 'केवल' शब्द लिखके इस हठके त्यागको बडी सफाईके साथ दिखाया है। इसी तरह उसी अध्यायके १४वे श्लोकमे 'लिम्पन्ति' शब्द लेप, लीपने या लिपटने के मानीमे लिखके बताया गया है कि कर्मोंमे हमारा लिपटना या कर्मोका हममे लिपटना ठीक नही है । यह तो स्पष्ट ही है कि कर्म तो कोई गुड, गोबर या गीली मिट्टी नही है जो योही लिपटेगे। वे तो हठ, राग या आसक्तिके द्वारा ही मनमे लिपट जाते है । लोग ऐसा न समझे कि हमने योही बीस जगहोंका नाम ले लिया है, इसीलिये प्रत्येक अध्याय और श्लोकोके अकोको जान लेना चाहिये ताकि कोई भी आसानीसे यह बात जाँच सके। दूसरे अध्यायके ४८वे श्लोकका तो व्याख्यान होई चुका है जहाँ 'सग' शब्द साफ ही आया है। तीसरेके ७, ६, १६, २५, २८, २६ श्लोकोमे; चौथेके २०, २३मे, पाँचवेके १०, ११मे; छठेके ४मे; नवेंके हमे और अठारहवेके ६, ६, १०, २२, २४, २६, ३४ और ४६ श्लोकोमे यही बात है। योही मोटामोटी नजर दौडाने- पर भी यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है। यदि गौरसे विचारा जाय तब तो कुछ कहना ही नही है। सदिग्ध स्थानोका तो हमने जिक्र किया ही नही है । इस प्रकार कर्मसन्यासमे कोई भी बाधा गीताकी नजरोमे हो नही सकती। परन्तु गीताने तो और भी साफ-साफ यह बात कही है । चौथे
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