६३८ गीता-हृदय 5 जो मुझ परमात्माको (भी) सवोमे और सबोको मुझ परमात्मामें देखता है उससे जुदा न तो कभी में होता है और न वह मुझसे अलग होता है। २६।३०। ये दोनो ही ग्लोक "येनभूतान्यशेषेण" (४॥३५)से एकदम मिल जाते । फलत उसीके विवरण रूप ही है। इन दोनोने अद्वैत या जीव, ब्रह्म और जगत्की एकताका चित्र खीच दिया है। सर्वभूतस्थित यो मा भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥३१॥ सभी पदार्थोमे ओत-प्रोत-मौजूद-मुझ परमात्माको जो योगी इस प्रकारकी एकताकी दृष्टिसे देखता है वह चाहे किसी भी दशामें रहने पर भी वरावर मुझमे ही डूवा रहता है ।३१। आत्मौपम्येन सर्वत्र सम पश्यति योऽर्जुन । सुख वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥३२॥ हे अर्जुन, चाहे सुख हो या दुख, (दोनोको ही) सभी पदार्थोमें जो अपने जैसा ही अनुभव करता है जो अपने सुख-दुख जैसे ही दूसरोके सुख-दुखका अनुभव करता रहता है--वही परले दर्जेका योगी माना जाता है ।३२॥ अव अर्जुनने देखा कि प्रो वावा, यह तो बीहड बात है-यह सन्यास तो आसान नहीं है। क्योकि सन्यासका जो असली प्रयोजन ध्यान और समाधिकी सिद्धि है वह मेरे पहुंचके बाहरकी चीज है। मेरे मनीराम तो ऐसे भयकर है, चचल है कि न तो कहीं टिकना ही जानते और न आत्मामें जुटना ही चाहते। फिर यह साम्यबुद्धि और समदर्शन रूपी समाधि पूर्ण होगी कैसे ? ऊहूँ। यह नहीं होने की, असभव है। इसी भावसे वह--
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