छठा अध्याय ६३७ निर्दोष (और इसीलिये) ब्रह्म स्वरूप हो जानेवाले इस योगीके पास सर्वोत्तम सुख-आत्मानन्द-खुद आ जाता है ।२७। युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसस्पर्शमत्यन्त सुखमश्नुते ॥२८॥ इस प्रकार सदा आत्मामे मनको लगाता हुआ (उसके फलस्वरूप) पापशून्य योगी आसानीसे ही ब्रह्मरूपी अखड सुख-निरतिशय ब्रह्मानन्द- प्राप्त करता है ।२८॥ यदि गौरसे देखा जाय तो पूर्वके “शनै शनैरुपरमेद्" श्लोकका ही एक तरहका व्याख्यान बादके इन तीन श्लोकोमे है । इसमे भी उसके पूर्वार्द्धका “यतोयत "मे, उत्तरार्द्धके पहले आधेका “प्रशान्त- मनस"मे और शेष चतुर्थांशका “युजन्नेव"मे स्पष्टीकरण है । आगेके चार श्लोक उस आत्मसाक्षात्कारके बादकी हालत बताते है। खासकर पहले दो तो उस साक्षात्कारका रूप स्पष्ट करते है। शेष दो ज्ञानीकी व्यावहारिक दशा बताते है कि ससारके साथ उसका सलूक कैसा होता है । इन आखिरी दोमे भी पहला है दूसरेकी एक तरहकी भूमिका ही । दूसरा--३२वाँ-ही उसका बाहरी व्यवहार चित्रित करता है। सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥२६॥ यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वच मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥३०॥ जिसका मन पूर्ण योगयुक्त हो गया है उसकी सर्वत्र समदृष्टि-- ब्रह्म या आत्म दृष्टि होती है। (इसीलिये वह) सभी पदार्थोमे अपने आपको और अपनेमे सब पदार्थोको देखता है। (इसी तरह)
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