६३४ गीता-हृदय हे अर्जुन, निश्चित परिमाणसे अधिक सानेवालेकी समाधि हो नहीं सकती, और न विल्कुल ही न खानेवालेकी ही। (इसी तरह) बहुत ज्यादा सोनेवाले या अधिक जागनेवालेकी भी (नही होती) ॥१६॥ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युफ्तस्वप्नाववोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥१७॥ (किन्तु) उचित मात्रामे जो खान-पान और घूमघाम करता है, दूसरी क्रियाये भी निश्चित परिमाणमे ही करता है और सोता-जागता भी है नियमित रूपसे ही, उमीकी समाधि सव कष्टोकी नाशक होती है-पूर्ण या सफल होती है ।१७। सोने-जागने वगैरहकी बात तो सभी जानते है। हालांकि योगी लोगोने इनमे भी बहुत नियम-कायदे-बनाये है। खानपानका नियम ऐसा ही है कि पेटका आधा अन्नसे और एक चौथाई जलसे भरके शेष चौथाई खाली रखे,-"अन्नेन पूरयेदर्धं चतुर्थ तु जलेन वै । मारुतस्य प्रचारार्थ चतुर्थमवशेषयेत्” । नहीं तो परिपाक ठीक नहीं होता और आलस्य रोगादि बढते है। क्या खाना, कब खाना आदिके भी नियम है । यदा विनियत चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥१॥ जव काबूम बखूबी आया हुआ मन आत्मामे ही जाके टिक जाता (तथा) अन्य सभी पदार्थोसे निस्पृह (हो जाता है) तभी कहा जाता है कि (मनुप्य) युक्त या योगारूढ हो गया ।१८। यथा दीपो निवातस्थो नँगते सोपमा स्मृता । योगिनो यत्तचित्तस्य युजतो योगमात्मनः ॥१९॥ मनको आत्मामें टिकानेका अभ्यास करनेवाले योगीका मन काबूमें आ जानेपर ठीक वैसे ही हिलता-डोलता नही जैसे बहनेवाली हवासे रहित स्थानमें दियाकी शिखा नही हिलती है ।१६।
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