गीता-हृदय यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसकल्पसन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥४॥ क्योकि जब सभी सकल्पोका त्याग कर देनेवाला मनुष्य न तो इन्द्रियोंके विषयोमें और न कर्मोमे ही चिपकता है तभी वह योगारूढ माना जाताहै।४। इन श्लोकोंके अर्थों के बारे में बहुत कुछ बातें पहले ही लिखी जा चुकी है । उन्हे जाने विना इनका आशय समझना असभव है। यहाँ इतना ही कहना है कि जो लोग शमका अर्थ मनकी शान्ति मानते है उन्हें भी अगत्या कर्मोका स्वरूपत त्याग मानना ही होगा। क्योकि आखिर मनकी शान्ति- का अर्थ क्या है ? यही न, कि उसकी हलचलें, क्रियायें बन्द हो जायें, उसकी चचलता जाती रहे? उसकी चचलताका भी यही अर्थ है न, कि बिजलीकी तरह बड़ी तेजीसे एके बाद दीगरे हजारो पदार्थोपर पहुंचता है ? और अगर यह चीज बन्द हो जाय तो होगा क्या? यही न, कि मन किसी एक ही पदार्थमें जम जायगा, वही स्थिर हो जायगा? एक पदार्थ भी वह कौनसा होगा? जब योगी और योगारूढकी बात है तव तो मानना ही होगा कि वह एक पदार्थ आत्मा ही होगी। उसीको परमात्मा कहिये या ब्रह्म कहिये । बात एक ही है। अब जरा सोचे कि जब मनीराम आत्मामें ही रम गये, जम गये, टिक गये तो फिर सन्ध्या-नमाजकी तो बात ही नहीं, क्या कोई भी क्रिया हो सकती है ? क्या पलक भी मार सकते या शरीर भी हिला सकते हैं ? क्या प्राणकी भी क्रिया जारी रह सकती है ? यह तो मन शास्त्रका नियम ही है कि जबतक मन किसी पदार्थमें न जुटे उसमे कोई क्रिया होई नही सकती। यह तो दर्शनोकी मोटी और पहली बात है। फिर शम माननेवाले क्रिया कैसे करेंगे यह समझसे वाहरकी चीज है । खूबी तो यह कि यह ध्यानका ही अध्याय है और ध्यान-समाधिके साथ नित्यनैमित्तिक क्रियायें भी होगी यह तो उलटी गगाका वहना है । यह भी नहीं कि मिनट दो मिनट या घटे दो
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