६२४ गीता-हृदय बडी ही कुशलतासे रख दी गई है। जहाँ यह कहा गया है कि तुम तो योगीके योगी और सन्यासीके सन्यासी हो और इस तरह दुहरा फायदा उठाते हुए "आमके आम और गुठलीके दाम"को चरितार्थ करते हो। फिर पर्वा नाहक ही किसकी करते हो? तहाँ उन्हें चढाने-बढानेके साथ ही धीरेसे यह भी कह दिया गया है कि हां, योगी बननेके लिये भी इतना तो करना ही होगा कि सभी सकल्पोको त्याग दिया जाय। इसके विना तो काम चली नहीं सकता। इस तरह ठीक-ठीक योगी बननेकी शर्ते भी रख दी गई और जल्दवाजीके खतरेसे भी बचा लिया गया। इसीके साथ यह भी ज्ञात हो गया कि सच्चे सन्यासी बननेके लिये सकल्पोका त्याग आवश्यक है । यह न हो, तो सिर्फ कर्मोको या उनके साधन अग्नि आदिको ही छोड देनेसे कोई भी सन्यासी नही बन जाता। ऐसे लोग तो वचक ही होते है। यहाँ सब सकल्पोका त्याग और कर्मफलकी पर्वा न करना ये दोनो एक ही चीज है। दोनोमें जरा भी फर्क नही है । इसी- लिये हमने 'कर्मफल' शब्दका कर्म और उनके फल यह दोनो ही अर्थ माना है और लिखा भी है। इसके लिये या तो कर्म और फलको दो जुदे- असमस्त-पद मान ले, या अगर दोनोका समास मानें तो समुच्चय द्वन्द्व मानके काम चलायें, जैसे करपादम् आदिमें होता है। सकल्प कर्मों और उनके फलो-दोनो--का ही होता है, और जबतक दोनोंके बारेमें बेफिक न हो जायँ सकल्पत्याग असभव है। दूसरे श्लोकमे जो 'असन्यस्तसकल्प शब्द आया है उसमें भी एक खूबी है । सन्यासके बारेमे जब विवाद ही है तो ऐसे मौकेपर 'सन्यस्त' शब्द न देके 'सत्यक्त' शब्द देना ही उचित था। क्योकि सन्यास शब्द के अर्थके बारेमें जब झमेला ही है और यह तय नहीं हो पाया है कि उसमें किसी चीजका स्वरूपत त्याग भी आता है या नही, तो ऐसी दशामें उसे लिखनेसे शक तो रही जायगा और अर्थकी सफाई हो न सकेगी। इसीलिये
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