६२२ गीता-ह T-हृदय साथ यह भी जानना आवश्यक है कि आया किसी भी दशामें कर्मोका स्वरूपत त्याग या सन्यास भी जरूरी है या नही। यह इसलिये कि छठेमें सभी साधनोके बतातेके समय यदि उन्हीके साथ नित्य-नैमित्तिक कर्मोक वन्द कर देने–सन्यास लेने की बात न आये तो समझेंगे कि यह काई वैसी जरूरी चीज नही है। कर्मोके स्वरूपत त्यागकी जरूरत किस दशामें कैसे है, यह बात व्योरेके रूपमें पांचवें अध्यायमे आई भी नहीं है। परन्तु कर्म-अकर्मके इस महान झमेलेमे है यह निहायत जरूरी चीज । इसलिये इसकी भी जिज्ञासाका अर्जुनके मनमें पैदा होना जरूरी था । किन्तु अर्जुन प्रश्न करे यह मौका खुद कृष्ण देना नहीं चाहते थे। क्योकि ये बातें कुछ ऐसी-वैसी तो नही है कि ध्यानमें न आयें। जिस चौजका उपदेश वह कर रहे थे ये बातें उसके प्राणस्वरूप ही कही जायें तो भी कोई अत्युक्ति नही हो सकती है। जबतक इनपर पूरा प्रकाश न डाला जाय, आत्मब्रह्मदर्शन, प्रादिका निरूपण अधूरेका अधूरा ही रह जायगा। इसीलिये कृष्णने बिना पूछे ही स्वयमेव इनकी सख्त जरूरत महसूस करके इन्हें उपदेश करना शुरू कर दिया। फलत यदि छठे अध्यायका विषय ध्यानयोग माना गया है तो ठीक ही है । समूचेका समूचा अध्याय हरेक पहलूसे इसी चीजपर प्रकाश डालता है। पातजलयोग और समाधि भी ध्यानके भीतर ही आ जानेवाली चीज है। लेकिन कृष्ण यह अनुभव भी कर रहे थे कि यदि अथसे इतितक इसी ध्यान और स्वरूपत कर्मत्यागकी ही बात करेंगे तो लोगोको धोका हो सकता है। परिणामस्वरूप इसके सामने कर्म करनेकी महत्ता वे भूल सकते है । क्योकि ध्यान-वानके वारेमे लोगोकी कुछ ऐसी ही ऊँची धारणा पाई जाती है कि और बाते इसके सामने तुच्छ मानते है। इसीलिये शुरूमें कर्मोके करनेपर जोर देके ही आगे बढते है। इस तरह बहुत बडे धोके तथा खतरेसे जन- साधारणको बचा लेते है। इन्ही सब विचारोंसे-
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६१२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।