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छठाँ अध्याय पाँचवे अध्यायमे जिस सन्यासका विशेष निरूपण आया है और सच्चे सन्यासीकी मनोवृत्तियोका जो विशेष विवरण दिया गया है उसीको कुछ आचार्योने प्रकृतिगर्भ या प्राकृतिक अवस्था भी कहा है । काम- क्रोध, राग-द्वेषादिका सर्वथा त्याग, भीतर ही मस्तीका अनुभव, सबके- हितकी कामना आदि बहुतसे लक्षण पूर्ण सन्यासीके बताये गये है। माया- ममताका तो उनमें नाम भी नही होता है। मिट्टीसे लेकर हीरेतक एव कुत्तेसे लेकर विद्या-सदाचार-सम्पन्न ब्राह्मणतकमें उन्हे कोई विभेद नजर नही आके सर्वत्र एकरस आत्मा और ब्रह्मका ही दर्शन होता है, यही नजारा दीखता है। यह तो आसान बात है नही, ऐसा खयाल किसीको भी हो सकता है जिसने गौरसे सारी बाते सुनी हो। इसीलिये उसके मनमे स्वभा- वत यह जिज्ञासा पैदा हो सकती है कि ऐसा आदर्श सन्यास कैसे प्राप्त होगा वह यह बात जरूर ही जानना चाहेगा। अन्तके २७, २८ श्लोकोमे जो दिग्दर्शनके रूपमे इस सन्यासावस्थाकी प्राप्तिके साधनोका वर्णन आया है उससे यह जिज्ञासा और भी तेज-हो सकती है, न कि शान्त होगी। एक तो यह बात अत्यन्त सक्षिप्त रह गई। दूसरे बहुत ही कठिन है । प्राणायाम या दृष्टिको टिकानेकी बात कहनेमे जितनी आसान है समझने और करनेमे उतनी ही कठिन । जबतक इसका पूरा ब्योरा न मालूम हो जाय और यह भी ज्ञात न हो जाय कि इस साधनमे सफलता होनेकी पहचान क्या है, तबतक काम चल सकता भी नही। यह काम कव, कहाँ, कैसे किया जाय और करनेवालोकी रहन- सहन वगैरह कैसी हो, आदि वाते भी जानना निहायत जरूरी है । इन्हीके ? !