पाँचवाँ अध्याय ६१५ (इसलिये) सर्वत्र फैला हुआ वह जीव न तो किसीके पुण्यका साथी या भागीदार है और न पापका। (दरअसल बात यह है कि) अज्ञानने ज्ञानको छिपा दिया है (जिससे लोग बात समझ सकते नही। फलत सभी) जीव भ्रममे पडके ही ऐसा मानते है कि (हम पुण्य-पापके भागी है)।१५। इन दो श्लोकोमे कुछ लोग प्रभु और विसु शब्दोका अर्थ परमात्मा कर डालते है। मगर उसका तो कोई भी प्रसग यहाँ हई नही । जब जीवात्माको वशी कह दिया तब तो "एकोवशी" (श्वेता० ६।१२) के अनुसार उसीको प्रभु और विभु मानना ही होगा। श्वेताश्वतरमें यह लिखा भी है साफ ही । प्रभुका अर्थ भी मालिक या शासक और विभुका सर्वत्र रहनेवाला है, और आत्मा ऐसा ही पदार्थ है। "शरीर यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर.” (१५।८) तथा “परमात्मेति चाप्युक्त.” (१३॥ २२)मे भी यह वात साफ लिखी है। ज्ञानेन तु तवज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥१६॥ (लेकिन) जिनकी आत्माका वह अज्ञान ज्ञानने मिटा दिया है उन्हें तो वही ज्ञान उस शुद्ध आत्माको सूर्यकी तरह प्रकाशित कर देता है। (फलत वे अपनेको पुण्य-पापके भागी नही मानते) ।१६। तबुद्धयस्तदात्मानस्तनिष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननिधूतकल्मषाः ॥१७॥ जिनकी बुद्धि उसी आत्मामे लग चुकी है, मन भी वही लगा है, उसीमे जो खुद रम गये है और उससे अन्य किसीकी पर्वा नहीं करते, ऐसे ही लोग ज्ञानसे समस्त पापोको बखूबी धोके जन्म-मरण-रहित पद-मुक्ति- प्राप्त कर लेते है ।१७॥ विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः ॥१८॥ -
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