पांचवाँ अध्याय ६०६ रास्तेके दो पडाव और विभाग है। अगर पडावकी वात नहीं है तो इतना ही कहना काफी था कि चाहे किसी पर भी चलिये वही पहुँचियेगा। ठीक ठीक चलना तो हई। गलत जानेकी तो बात हई नही है । मगर जब 'ठीक-ठीक' या 'सम्यक्' कहा है तो इससे कृष्णका यही आशय जाहिर होता है कि हरेक पडावको पूरा कर लेना होगा। नही तो जल्दबाजी करनेमे रास्ता पूरा न होगा। लक्ष्य स्थान पर पहुँच भी न सकेगे। अनजान या आतुरतामे कोई जल्दी ही सन्यासी बन जानेकी कोशिश न करे, इसीलिये यह चेतावनी है। क्योकि ऐसा करने पर रास्ते पर ठीक-ठीक चलना नही हो सकेगा। पाँचवे श्लोकमे स्पष्ट भी कर दिया है कि सन्यास और योगसे जब एक ही जगह पहुँचना है तब घबराहटकी क्या बात ? योगमें भी तो रास्ता तय करी रहे है। उसके पूरा होते ही सन्यास वाला पडाव या वह स्थिति भी अपने आप आयेगी ही। तब अधीर क्यो हो ? अब आखिरी बात यही रह जाती है कि एक ही मार्गके दो पडाव होनेपर भी पहले सन्यास आता है, या योग, कौन कहे ? पहले सन्यास ही क्यो न माना जाय ? ऐसा सोचना असभव नही। असलमे आलस्य और अकर्मण्यताकें करते स्वभावत लोग सोचते रहते है कि मुक्ति भी मिल जाय और विशेष कुछ करना न पडे तो अच्छा हो। यह भी खयाल होता है कि जभीतक कर्मोके फन्देसे बचे तभीतक सही। पीछे देखा जायगा। इसीलिये ऐसा खयाल होना जरूरी है कि पहले सन्यास ही क्यो न हो। तीसरे अध्यायके शुरूमें ही यह खयाल दिखाया भी गया है। इसीका उत्तर छठे श्लोकमे दिया है कि सन्यास बादकी चीज है। पहले तो योग ही आता है। इसीलिये योगके बिना सन्यासका होना असभव है। यदि सच्चा सन्यास चाहते है तो पहले योग या कर्म करना आवश्यक है। इसपर तीसरे अध्यायके शुरूमे ही हमने काफी प्रकाश डाला है ।
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