४२ गीता-हृदय गई है, तो वह केन्द्रीभूत सामना होगा।। फन, उगका नकल्प, कमंके करनेका आग्रह और उसके न करनेका रहयती गारही नो ऐनी चीजे है जिनकी अोर मन कर्मके मिनमिनमे भटक नफता है, भटकता फिरता है। मगर गीताने इन नारोका दर्वाजा बन्द गरका उनके लिये कोई रास्ता ही नहीं छोडा है कि गाग नफे। नतीजा यह होगा कि कमको नागोपाग पून्ति नो होगी नी । उनीके साथ उसका फल, परिणाम या नतीजा भी होनी रोगा। उममें दिनान- की गुजाउग रही कहाँ ? गडबी नमो गम्ने नो बन्द गई गये । यह भी कितनी मोजूं और युक्तियुक्त बात है कि सामने फलोको तो कोई मीधे पकड मकता नहीं । उन्हें तो कमके द्वारा ही पका जा सकता है। इन्मान काम करता है और कामने फल होना, नारे बुग हो या भना। हम मीधे फल तो पैदा करते ही नही। हमारे वी चीज तो फर्म या क्रिया ही है । फल तो है नहीं। फिर हन कियातो तो फिर क्यो न करें? फलकी पोर नाहक क्यो दौरे ? यह तो मृगतृष्णाली वात ही ठहरी । जो चीज हमारे वशकी नहीं, अधिकारको नहीं, उसपर नाहक गयो दो. और लटू हो ? फलत गीताने जो कहा है कि सिर्फ कर्ममे ही अधिकार है, वही तो युक्तिसगत बात है । वह कोई पारनयंकी नीज तो है नहीं। और कर्म या अकर्मका हठ तो महज नादानी है, जैनी कि सभी तरहफे ह की बात है इस उपदेशका फल यह हुआ कि एक तो कर्मका फल जरूर ही मिलेगा-उसका मिलनाएक प्रकारमे निश्चित ही समझिो, यदिकोई दैवी वाचा प्रान पहुंचे। मगर यह बात फलको इच्छा, तालगा और नकल्पके होनेपर सभव नही। क्योकि “मन न होय दग बीम"के अनुनार एक ही मन कभी कर्मको अोर जायगा तो कभी फलको शोर, कभी उनके त्यागकी श्रोर और कभी उसके करनेके हठकी तरफ। कभी उसे कर्म अपनी ओर -
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