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गीता-हृदय ६०८ कि दोनो--सन्यास और योग-को जो एक कहा है वह इसीलिये' इन दोनो स्वतत्र मार्गोसे एक ही जगह पहुंचते है। मगर जव उसीके उत्तरार्द्ध पर गौर करते है तो यह खयाल मिट जाता है और दोनो मिलाके एक ही रास्ता पूरा होता दीखता है। उत्तरार्द्धका अर्थ यह है कि "यदि एक रास्ते पर भी ठीक-ठीक चले तो भी दोनोंके फल मिल जाते हैं।" इसमें दो वाते है। पहली है दोनोके फलके मिलनेकी । यदि दोनोका फल स्वतत्र रूपसे एक ही होता तो इतना ही कहना काफी था कि “व 'फल मिलेगा"--"तदेव विन्दते फलम् ।" यह कहनेकी क्या जरूरत कि एक पर चलने पर भी दोनोका फल मिलता है ? दोनो कहनेसे तो दोनोका सम्मिलित फल मिलता है, यही अर्थ निकलता है । एक कहनेके बाद दोनोका-उभयो-कहने पर दूसरा अर्थ होई नही सकता । नही तो इतना ही कहना पर्याप्त था कि चाहे किसी रास्ते पर चलिये नतीजा एक ही होगा। लेकिन “एक पर भी ठीक-ठीक चले"-"एकमप्यास्थित सम्यक् यह भाग तो और भी सफाई कर देता है। इसमें जो 'ठीक-ठीक' विशेषण लगा है वह यही बताता है कि रास्तेकी पाबन्दी अच्छी तरह होना जरूरी है । जल्दवाजीमें एक रास्तेको छोडके दूसरे पर जानेमे खतरा है । यह तो सभव नही कि तीसरा भी रास्ता हो जिसमे भटक जायें और दोम एक पर भी चल न सकें। क्योकि जव दोईका नाम लेते है और तीसरे चर्चा भी नही करते तब उसका प्रश्न आता ही कहाँ है ? और जब तीसरा यहाँ उपस्थित हई नही तव तो इतना ही कहना काफी है कि एक पर या किसी पर भी चलने पर वही पहुंचेगे। भटकनेकी वात हई नही । हो भी क्यो ? जो लोग मोक्षमार्गी है उनके भटकनेकी वात गीता क्यो कहे । वह तो सारी वाते जानते है। उनने तो जान लिया है कि दो रास्ते हैं । जानना शेष यही है कि आया ये दोनो ही एक दूसरेसे स्वतत्र है, या एक ही