६०४ गीता-हृदय अर्जुनके पूछनेका यह भी अभिप्राय है कि यदि ज्ञानके लिये सन्यास जरूरी न हो और कर्म से ही काम चलता हो, तो साफ-साफ कहते क्यो नही ? आखिर आत्मज्ञान तो आवश्यक है। उसके बिना तो काम चलनेका नही । अब अगर उसके लिये खामखा सन्यास जरूरी न हो, तो यही बात साफसाफ कह दीजिये। क्योकि अबतकके कथनसे तो पता चलता है कि दोनोकी जरूरत है। मैने समझी है भी दोनोकी जरूरत समानरूपसे ही । इसीलिये किसीको भी अपने मौके पर छोडा नही जा सकता। दोनोके ही अलग-अलग मौके आते भी है। लेकिन अगर आप ऐसा मानते हो कि मेरी समझ गलत है और दोनोकी जरूरत समान नही है, किन्तु कर्मकी ही आवश्यकता अनिवार्य है, इसलिये वही हर हालतमें अच्छा है-कर्तव्य है, तो यही बात निश्चित रूपसे साफ-साफ कह दीजिये। या अगर आप यह मानते हो कि जरूरत तो दोनोकी एक सी ही है, दोनोंके ही अपने अपने अवसर भी आते है, फिर भी कर्मकी विशेषता इसलिये है कि वही पहली सीढी है, फलत उसपर पाँव दिये बिना सन्यासकी दूसरी सीढी पर या तो पहुँची नही सकते या पहुंचनेमें खतरा है, साथ ही, कर्मोके करनेमें दिक्कतें और परीशानियाँ जो होती है, उन्हीके करते लोग जी चुराके उनसे भागना चाहते है, यही कारण है कि कर्म पर जितना जोर देना जरूरी हो जाता है उतना सन्यास पर नही, यही नही, कर्म पर ही जोर देने और उसीको अच्छा बताने पर जब लोग उसमें पड़ जायँगे तो सन्यासका मौका तो स्वय आई जायगा और उसे लोग करी लेंगे, तो यही वात स्पष्टतया कह दीजिये। कृष्ण खासतौरसे इसी आखिरी अभिप्रायसे ही बातें कर रहे थे। उनके कहनेका आशय भी यही था। इसीलिये उसीको स्पष्ट करनेके लिये पुनरपि-
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